Thursday, 20 September 2018

ईरान पर प्रतिबंध अमेरिकी दंभ का परिणाम तो नहीं

       
                                         
     ईरान के साथ कारोबार करने वाले देशों पर प्रतिबंध लगाए जाने की अमेरीकी घोषणा के बाद तेल के वैश्विक बाजार में हलचल शुरू हो गई है। ईरान को पटरी पर लाने के लिए अमेरिका एक साथ दो मोर्चो पर काम कर रहा है। एक ओर राष्ट्रपति डोनाल्ड टंªप ओपेक (तेल उत्पादक देशों का संघ) देशों पर तेल के उत्पादन को बढाने का दबाव बना रहे हैं, वही दूसरी तरफ वह दुनिया के देशों को ईरान से तेल नहीं खरीदने के लिए  बाध्य कर रहे है। अब तक जो परिणाम सामने आए हैं, उसमें ट्रंप दोनोें ही मोर्चों पर आगे बढ़ते दिखाई दे रहे हंै। ईरान का तेल उत्पादन जुलाई 2016 के बाद अब तक के सबसे न्यूनतम स्तर पर पहंुच चुका है।
     अमेरिका ने विश्व समुदाय को 4 नवंबर तक की डेडलाईन दे रखी है। उसका कहना है कि 4 नवंबर से सभी देश ईरान से होने वाले तेल के आयात को रोक दे, नहीं तो उन्हें भी अमेरीकी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा। दूसरी ओर ईरान ने जवाबी कार्रवाई में यूरोपियन यूनियन (ईयू) के सदस्यों को धमकी दी है कि परमाणु समझौते से अमेरिका के अलग होने के बाद अगर यूरोपीय संघ  अपने दायित्वों का निर्वहन करने में विफल रहता है, तो वह यूरेनियम संवर्धन की दिशा में आगे बढ़ने में गुरेज नहीं करेगा। यद्वपि ईरान ने समझौते से अलग होने की संभावना से इंनकार किया है। लेकिन, साथ ही उसने यूरोपीय सहयोगियों को आगाह किया है कि अगर वह समझौते में ईरान के हितों की सुरक्षा करने में विफल रहते हैं तो फिर ईरान कोई कदम उठा सकता है। इतना ही नहीं उसने ओपेक देशों पर भी आरोप लगाया है कि इसके कुछ सदस्यों ने पूरे संगठन को अमेरिका की कठपूतली बना दिया है। उसका इशारा सऊदी अरब और यूएई की ओर था। जून माह में जब ओपेक ने तेल उत्पादन को बढ़ाने पर सहमति दी थी तो ईरान ने ओपेक के इस कदम का विरोध किया था।
     ईरान और छह देशों रूस, ब्रिटेन,चीन, फ्रांस, अमेरिका और जर्मनी ने 2015 में ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर एक ऐतिहासिक समझौता किया था। इस समझौते के बाद आर्थिक प्रतिबंधों को कम करने के बदले तेहरान अपनी न्यूक्लियर क्षमता को सीमित करने के लिए तैयार हो गया था।
     अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा क कार्यकाल के दौरान 2015 में हुए ईरान परमाणु समझौते को मौजूदा दशक की एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में देखा जाता है। लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप ने इस साल मई में घोषणा की कि अमेरिका ईरान परमाणु समझौते से अपने को अलग कर रहा है। टंªप का मानना है कि यह समझौता ईरान के न्यूक्लियर बम को रोकने में नाकाम साबित हुआ है। वह यह भी कहते हैं कि इस समझौते के बाद भी ईरान गैर परमाणु बैलिस्टिक मिसाइल का निर्माण कर रहा है। साथ ही वह  सीरिया, यमन और इराक में शिया लड़ाकों और हिजबुल्ला जैसे संगठनों को हथियार सप्लाई कर रहा है। जिसके चलते फिर से प्रतिबंध लागू किये गयेेेे है। इन प्रतिबंधों में ईरान के साथ व्यापारिक गतिविधियों को जारी रखने वाले देशों पर भी प्रतिबंध लगाने का प्रावधान किया गया है। अमेरिका ने दो टूक शब्दों में कहा है कि ईरान से तेल आयात करने वाले देशों को ईरान या अमेरिका में से किसी एक को चुनना होगा। हालांकी इसके लिए उसने अन्य देशों को थोडा वक्त और मौका जरूर दिया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि ट्रंप के ईरान पर लगाए गए आरोपों का आधार क्या है। वह किस आधार पर कह रहे है कि ईरान न्यूक्लियर बम न बनाने की अपनी शर्त पर नाकाम रहा है। क्या अमेरिका के पास इस बात के कोई पुख्ता प्रमाण है? अगर है, तो क्या उन प्रमाणों को अपने सहयोगी देशों के साथ साझा नहीं किया जाना चाहिए था। अकेले अमेरिका के अलावा क्या किसी अंतरराष्ट्रीय जांच एजेंसी ने इस बात का खुलासा किया है कि ईरान न्यूक्लियर टैस्ट की तैयारी कर रहा है। कंही ऐसा तो नहीं कि परमाणु समझौते की आड़ में टंªप अपने किन्ही छिपे हुए हितों को साध रहे हो। फिर सबसे अहम सवाल यह है कि समझौते में सम्मिलित बाकी पांचों देश अभी भी समझौते के पक्षकार बने हुए है। अमेरिकी आरोपों के बावजूद भी हाल-फिलहाल उन्होंने ईरान को लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। ऐसे में टंªप की नियत पर संदेह होना स्वाभाविक है। 
     पूरे मामले की तह तक जाने के लिए हमें इतिहास में कुछ पीछे जाना चाहिए। अमेरिका- ईरान संबंध उस वक्त बिगड़ने शुरू हुए जब 1979 की ईरान की इस्लामिक क्रांति के बाद अमेरिका के पिट्ठू कहे जाने वाले शाह मोहम्मद रजा पहलवी को अपदस्थ कर, आयतुल्लाह रूहोल्लाह खोमैनी के अधीन इस्लामिक गणतंत्र की स्थापना हुई थी। शाह और अमेरिकी गठजोड़ के अंत के बाद दोनों देशों के बीच अविश्वास की खाई गहराती चली गई। अमेरिका शाह की बर्खास्तगी को भूला नहीं पा रहा था। वह ईरान को सबक सिखाने के लिए किसी माकुल अवसर की तलाश में था।
     इस बीच साल 2002 मंे ईरान के अघोषित परमाणु केंद्रो के खुलासे की खबरंे आई। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) का कहना था कि ईरान एक गुप्त परमाणु हथियार कार्यक्रम शरू करने की तैयारी कर रहा है, जिसका लक्ष्य मिसाइलों के लिए परमाणु हथियार बनाकर उनका परीक्षण करना है। अमेरिका इसी अवसर की तलाश में था। इसके बाद अमेरिका की अगुवाई में अतरराष्ट्रीय समुदाय ने ईरान पर कडे़ आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। प्रतिबंधों के कारण ईरान की अर्थव्यवस्था चरमरा उठी। इसके बाद पी5प्लस वन कही जाने वाली छह शक्तियों (अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, रूस और चीन ) के साथ उसकी बातचीत का लंबा दौर शुरू हुआ जिसका अंत जुलाई 2015 में वियना समझौते (ईरान परमाणु समझौते )के साथ हुआ। समझौते के तहत ईरान अपने करीब नौ टन सवंर्धित यूरेनियम भंडार को कम करके 300 किलोगा्रम तक करने के लिए राजी हो गया। समझौते की एक अन्य शर्त यह भी थी कि आईएईए को समय-समय पर इस बात की जांच करने की स्वतंत्रता होगी कि ईरान संधि के प्रावधानों का पालन कर रहा है या नहीं। इन शर्तों के बदले में पश्चिमी देश ईरान पर लगे प्रतिबंध हटाने पर सहमत हो गए। यहां एक ओर अहम सवाल यह भी उठता है कि क्या आईएईए ने ईरान में बीते तीन वर्षों में समझौते की शर्तों को लेकर किसी तरह का शक जाहीर किया है। या उसने किसी भी तरह से ईरान द्वारा समझौते की शर्तों का उल्लंघल किया जाना पाया है। अगर ऐसा नहीं है तो निश्चिय ही टंªप अपनी व्यक्तिगत खुंदस निकालने के लिए समझौते को तौड़ रहे हंै।
 ट्रंप ईरान समझौता तोड़ने के पीछे की दूसरी वजह इसका बेहद उदार होना बताते हैं। उनका कहना है कि यह समझौता ईरान को तय सीमा से कंहीं अधिक हैवी वाॅटर( परमाणु रिएक्टरों के संचालन में इसका इस्तेमाल होता है।) प्राप्त करने और अतंरराष्ट्रीय जांचकर्ताओं को जांच के मामले में सीमित अधिकार देता है।  ट्रंप का कहना है कि ईरान की इन हरकतों को रोकने के लिए इस समझौते को रद्द कर इसे और कठोर बनाया जाना चाहिए।
      सच तो यह है कि समझौते से पीछे हटने की असल वजह अमेरिका की आंतरिक राजनीति भी है। साल 2015 में रूस, ईरान और हिजबुल्लाह के गठजोड़ के चलते उसे सीरिया में हार का सामना करना पड़ा था। अमेरिका और इसरायल अपनी लाख कोशिश के बावजूद सीरिया में बशर-अल -असद को हटा नहीं पाए। बहुत से यूरोपिय देश तो अमेरिका पर खुला आरोप लगा रहे हैं कि सीरिया की पराजय का बदला लेने और ईरान को सबक सिखाने के लिए उसने परमाणु समझौता तोड़ा है। द्वितीय, यह समझौता टंªप के लिए व्यक्तिगत तौर पर भी खासा महत्व रखता है।  राष्ट्रपति चुनाव के दौरान भी उन्होंने इस मुददे को जमकर भुनाया था। ट्रंप ने प्रचार के दौरान वादा किया था कि ईरान को उसकी हरकत के लिए सजा देगे और परमाणु समझौता रद्द कर उस पर और कडे़ प्रतिबंध लगायेंगे। समझौता तोड़ने की घोषणा के दौरान उन्होंने कहा था कि मैं जो कहता हूं, वह करता हूं। तृतीय, प्रतिबंधों के जरिये उŸार कोरिया को काबू में करने वाले टंªप संभवत ईरान में भी इसी फार्मुले का प्रयोग कर रहे हो। अगर ऐसा है, तो निसंदेह यहां टंªप गलत ट्रेक पर है। ईरान और उŸार कोरिया कि स्थिति में जमीन आसमान का अंतर है। उŸार कोरिया एक कमजोर अर्थव्यवस्था वाला देश था। जबकी ईरान के पास तेल से होने वाली आय का एक बहुत बडा श्रोत है। दूसरा, उŸारकोरिया का अपने प्रमुख पड़ोसी दक्षिण कोरिया के साथ भी विवाद था और दक्षिण कोरिया अमेरिका का निकट सहयोगी था। जबकी ईरान के आस-पास की स्थिति ऐसी नहीं है, जहां अमेरिकी हस्तक्षेप की संभावना हो। तृतीय, उŸार कोरिया के पक्ष में एक अकेले चीन था, जबकी ईरान के साथ इस समय रूस व चीन दोनों खड़े है। ऐसे मंें ईरान अमेरिकी धमकियों के आगे आसानी से झुक जाएगा इसमे संदेह है।
     सच्चाई चाहे जो भी अमेरिका-ईरान की इस लड़ाई में असल परीक्षा भारत की होनी है। भारत और ईरान के बीच दशकों पुराने संबंध है। भारत अपनी तेल जरूरतों के लिए काफी हद तक ईरान पर निर्भर करता है। इराक और सऊदी अरब के बाद ईरान भारत का तीसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकता देश है। ईरान से भारत को इस वक्त बड़ी मात्रा में रियायती दर पर तेल उपलब्ध हो रहा है। खास बात यह है कि भारत-ईरान के बीच रूपए-रियाल व्यापार व्यवस्था होने के कारण भारत अपनी मुद्रा रूपए में ईरान से तेल का आयात करता है। इसके अलावा भारत ईरान में चाबहार पोर्ट को विकसित कर रहा है। रणनीति दृष्टि से चाबहार भारत के लिए खासा महत्वपूर्ण है। भारत इसे मध्य एशिया, रूस और यूरोप के लिए गेटवे के रूप में विकसित कर रहा है।
     हाल फिलहाल भारत असंमजस कि स्थिति मंे है। अमेरीकी दबाव के चलते अगर वह ईरान से तेल का आयात बंद करता है, तो संभव है ईरान में चल रही चाबहार सहीत अन्य परियोजनाएं प्रभावित होगी। दूसरी ओर अगर वह यूरोपीय संघ, रूस तथा चीन जैसे  देशों का अनुसरण करते हुए ईरान से तेल व्यापार जारी रखता है तो न केवल अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत की साख बढे़गी बल्कि उसके स्वंत्रत विदेश नीति के सिद्वांत की कल्पना भी दुनिया तक पहुंच सकेगी। संभवत भारत दूसरे मार्ग का ही अनुसरण करे। विदेशमंत्री सुषमा स्वराज का वक्तव्य भारत के इसी दृष्टिकोण को प्रकट करता है जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा लगाए गये प्रतिबंधों को तो स्वीकार करने के लिए तैयार है, किन्तु वह किसी एक विशेष देश के फैसले को मानने के लिए प्रतिबद्व नहीं है। ऐसे मे देखना यह है कि भारत टू प्लस टू संवाद की पृष्ठभूमि के बीच वह ईरान से अपने संबंधों को कैसे साधकर चलता है।
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Wednesday, 13 June 2018

                                               शांति के नए युग का आगाज
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अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड टंªप और उŸार कोरिया के नेता किम जोंग-उन की सिंगापुर शिखर वार्ता को न केवल कोरियाई प्रायद्वीप, बल्कि वैश्विक शांति स्थापना की दिशा में एक अहम कदम माना जा रहा है। दोनों नेताओं के बीच दो दौर की वार्ता के बाद किम जोंग ने जहां पूर्णत परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए प्रतिबद्वता जताई है, तो वहीं बदले में अमेरिका ने उŸार कोरिया को सुरक्षा की गांरटी दी है। शिखर वार्ता के बाद घोषित साझा दस्तावेज के मुताबिक अमेरिका और उŸार कोरिया के बीच अब रिश्तों का नया दौर शुरू होगा।
सिंगापुर के सैंटोसा द्वीप पर स्थित कैपेला होटल में दोनों नेताओं का मिलना कोरिया प्रायद्वीप के अमन व विश्व शांति के लिहाज से काफी अहम माना जा रहा था। कहना गलत नहीं होगा कि उत्सुक्ता और विस्मय से भरपुर इस मेराथन वार्ता में गर्मजोशी के साथ-साथ, डोनाल्ड टंªप व किम जोंग-उन का बहुत कुछ दाव पर लगा था।
पहले दौर की मुलाकात समाप्त होने के बाद जब किम ने टंªप से अंग्रेजी में कहा ’नाइस टू मीट यू, मिस्टर प्रेजीडेंट’ तथा जवाब में टंªप ने किम से कहा ’आई ट्रस्ट यू’ तभी इस बात का अहसास हो गया था कि दोनांे नेता अतीत की कड़वाहट और पूर्वाग्रहों को त्याग कर खुले दिल से बातचीत का मन बनाकर सिंगापुर आए हैं। जिस तरह से सिंगापुर में पुरानी तल्खी भूलकर टंªप और किम एक-दूसरे से गर्मजोशी से मिले व बार-बार हाथ मिलाये उससे इस बात की उम्मीद की जानी चाहिए कि सिंगापुर दस्तावेज में उल्लेखित शब्द देर-सवेर व्यावहारिक रूप लेगे ही ।
द्विपक्षीय संबंधों को सामान्य बनाने और कोरियाई प्रायद्वीप में पूर्ण परमाणु निरस्त्रीकरण को लागु करने के उदेश्य के साथ जब टंªप और किम मिले तब इस बात की संभावना बहुत कम थी कि दोनों देशों के बीच किसी तरह का कोई करार अथवा डील हो सकेगी। यद्धपि सिंगापुर घोषणा, अस्पष्ट, संदेह बढाने वाली और कुटनीतिक शब्दावली वाली डील है, जिसमें दोनों ही पक्षों की ओर से ऐसी कोई स्पष्ट प्रतिबद्धता नहीं झलकती है, जिसका मूर्तरूप से आंकलन किया सके। डील पर संदेह के कई कारण है। प्रथम तो यह कि अब जब कि किम कोरिया प्रायद्वीप में निशस्त्रीकरण की प्रक्रिया को सैद्धातिंक तौर पर स्वीकार कर चूके हंै, ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि इसे व्यावहारिक रूप में कैसे लागु किया जाएगा। किम शुरू से ही इस प्रक्रिया को पश्चिमी देशों से आने वाले निवेश व व्यापार से जोड़कर देखते रहे हंै, जबकि डील में टंªप ने प्रतिबंधों को हटाने व उसमें ढील दिये जाने जैसी कोई बात नहीं की है।  प्रतिबंधों के बारे में टंªप ने केवल इतना ही कहा कि जब यह सुनिश्चित हो जाएगा कि उŸार कोरिया के परमाणु मिसाइल अब कारगर नहीं हैं, तो प्रतिबंध हटा दिए जाएंगे। यानी किम के प्रोत्साहन व उŸार कोरिया की पहल के लिए फिलहाल डील में कुछ नहीं है। द्वितीय, डील में उŸार कोरिया के परमाणु हथियारों को नष्ट करने की कोई समय सीमा नहीं है और न ही यह स्पष्ट किया गया है कि उŸार कोरिया अपनी मिसाइल कार्यक्रम का परित्याग किस सीमा तक करेगा लेकिन यह उल्लेखनीय है कि वह ऐसा करने के लिए सहमति जता रहा है।  डील पर एक प्रश्न यह भी उठ रहा है कि अमेरिका ने उŸार कोरिया को सुरक्षा का जो भरोसा दिलाया है, उस भरोसे का कोई स्पष्ट रूप अब तक सामने नहीं आया है, अलबŸाा उसने दक्षिण कोरिया के साथ सांझा सैन्य अभ्यास रोक देने के संकेत जरूर दिये हैं। गौरतलब है कि इस सैन्य  अभ्यास को लेकर किम जांेग-उन काफी नाराज थे और इसकी वजह से उन्होंने वार्ता से हट जाने की धमकी भी दी थी।
दोनों नेताओं के बीच वार्ता के बाद करार के जिस स्वरूप पर हस्ताक्षर किए गए है, उसकी शब्दावली पर गौर करें तो देखेगे कि वास्तव में जो समझौता हुआ है, वह लक्ष्य से कोसों दूर है। अमेरिका चाहता था कि उŸार कोरिया हमेशा के लिए पूर्ण परमाणु निरस्त्रीरकरण के लिए राजी हो परन्तु किम ने उŸार कोरिया के पूर्ण और स्थायी तथा अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप परमाणु निरस्त्रीरकरण की रजामंदी के बजाए कोरिया प्रायद्वीप के पूर्ण निरस्त्रीकरण के प्रयास की बात कही है। इसका एक अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि अमेरिका ने दक्षिण कोरिया की सुरक्षा के लिए जो परमाणु अस्त्र तैनात किए हुए है, उन्हें भी हटाया जाएगा। क्या अमेरिका ऐसा करेगा ? सच तो यह है कि  सिंगापुर घोषणा में परमाणु निरस्त्रीकरण को लेकर अनिश्चितंता के वह तमाम तत्व मौजूद है जो भविष्य में दोनों देशों केे बीच कड़वाहट का कारण बन सकते हैं। इसके अलावा करार में परस्पर विश्वास बहाली की दिशा में आगे बढने के किसी फार्मूले की बात भी नहीं है। करार की पालना में उŸार कोरिया परमाणु निरस्त्ररीकरण की दिशा में कोई कदम उठाता भी है तो ट्रंप सहजता से उस पर विश्वास कर लेंगे इसमें संदेह है। वार्ता से पहले जब उŸार कोरिया ने अपनी परमाणु साइट क्षेत्रों को अंतरराष्ट्रीय मीडिया के सामने नष्ट करने की कार्रवाई की तो ट्रंप ने उŸार कोरिया की इस कार्रवाई को खारीज कर दिया था। टंªप का मानना था कि यह केवल दिखावा था, क्यांेकि वहां अंतरराष्ट्रीय प्रयवेक्षकों को जाने ही नहीं दिया गया। तृतीय, उŸार कोरिया दोबारा कोई परीक्षण नहीं करेगा इसकी क्या गांरटी है। ऐसी आंशका इसलिए बैजा नहीं है कि किम जोंग जिस उदेश्य व उम्मीद को लेकर बातचीत की टेबल तक आने के लिए राजी हुए थे वह अभी पूरी नहीं हुई है। वे अमेरिका के साथ ऐसी डील चाहते हंै, जो उनके देश की अर्थव्यवस्था एवं 2.5 करोड़ नागरिकों के हित मे हो। ट्रंप ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि उŸार कोरिया पर लगे प्रतिबंध फिलहाल जारी रहेगे। लेकिन पिछले एक माह में किम जोंग-उन का जो व्यवहार व आचरण रहा है, उससे उन पर संदेह करने का फिलहाल कोई कारण नहीं दिखता है। सिंगापुर शिखर वार्ता के बाद अन्य देश क्या रियक्ट करते है, यह भी महत्वपूर्ण है, खासकर चीन, जापान व रूस ।
टंªप इस मुलाकात को शांति कायम करने का एक मौका मान रहे हैं, वहीं दुनिया से अलग थलग रहने वाले उतर कोरिया के लिए शेष दुनिया से जुड़ने का एक महत्वपूर्ण अवसर है। दरअसल दोनों ही नेताओं के लिए यह शिखर वार्ता उनके राजनीतिक जीवन के लिए एक संजिवनी की तरह थी। ट्रंप की लोकप्रियता देश के भीतर कम हुई है। उनकी सरकार के पास दिखाने के लिए बहुत कम उपलब्धियां है। वह चाहते हैं कि अगर वे उŸार कोरिया को परमाणु कार्यक्रम से हटने के लिए राजी कर लेते हैं तो यह अतंरराष्ट्रीय राजनीति में एक ऐसी घटना होगी जिसकी ध्वनी अगले कई वर्षोें तक सुनाई देगी। इस शिखर वार्ता के दौरान अगर वे कोरिया समस्या का स्थाई समाधान करने या उस दिशा में कोई महत्वपूर्ण पहल करने में सफल हो पाते हैं तो उनका कद न केवल अमेरिका के भीतर बल्कि वैश्विक जगत में बहुत ऊंचा हो जाएगा। कुछ ऐसी ही मनोस्थिति किम जोंग की भी थी। मानवाधिकारों के हनन को लेकर वे अक्सर अंतरराष्ट्रीय आलोचनाओं का शिकार बनते रहे हैं। किम भी दक्षिण कोरिया की तरह अपने देश के नागरिकों को भी बेहतर जीवन सुविधाए देना चाहते हैं। यह तभी संभव है जब उत्तर कोरिया पर लगे आर्थिक प्रतिबंध हटे।
            कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सिंगापुर घोषणा कोरिया प्रायद्वीप में शांति बहाली की  दिशा में उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम जरूर है, पर शांति स्थापना की मंजील अभी दूर है। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उŸार कोरियाई नेता किम जोेंग-उन ने शांति स्थपाना के जिस मार्ग पर चलने का मन बनाया है, वह आपसी सहयोग,  त्याग और एक उदेश्य की मांग करता हैै। जाहिर है इसमें कई तरह के उतार-चढाव आऐगंे, सहमतियां-असहमतियां बनेगी  और कठिन समझौते होंगे, पर 40 मिनट की बातचीत के बाद जब ट्रंप यह कहते कि दुनिया बड़ा बदलाव देखेगी। तो इस बात की उम्मीद बढ़ जाती है कि यह बदलाव सकारात्मक ही होगा ।

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स्ंशय में वार्ता


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     अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड टंªप और उŸार कोरिया के नेता किम जोंग-उन के बीच सिंगापुर मंे होने वाली शिखर वार्ता पर पुरी दुनिया टकटकी लगाए हुए है। कोरिया प्रायद्वीप के अमन व विश्व शांति के लिहाज से दोनों नेताओं के बीच होने वाली यह वार्ता काफी अहम मानी जा रही है। कहना गलत नहीं होगा कि उत्सुक्ता और विस्मय से भरपुर इस मेराथन वार्ता में गर्मजोशी के साथ-साथ, डोनाल्ड टंªप व किम जोंग-उन का बहुत कुछ दाव पर लगा है।
     वर्षों तक बाहरी दुनिया से अलग-थलग रहने वाले किम जोंग-उन अब एक के बाद एक बड़े नेताओं से मिल रहे हैं। पहले चीन, फिर दक्षिण कोरिया और फिर दुबारा चीन की यात्रा करने वाले किम जांेग रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से भी मिलेगे। पुतिन ने उन्हें सितंबर में व्लाइिवोस्टाॅक (चीन की सीमा से सटे शहर) में मिलने का न्योता भेजा है। सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद ने भी उŸार कोरिया की राजधानी प्योंगयांग का दौरा करने की बात कही है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो यहां तक कह दिया है कि अगर सिंगापुर शिखर वार्ता सफल रही तो वे उŸार कोरियाई शासक को अमरीका आने का न्यौता देंगे। संभव है कि किम से अगली मुलाकात वाइट हाउस में हो। हमेशा अपने देश की सीमा तक सीमटे रहने वाले किम जोंग-उन का यकायक वैश्विक नेता के रूप में उभरना कई मायनों में अहम है।
     कंही ऐसा तो नहीं कि किम अमेरीका पर एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक दबाव बना रहे हों या फिर वे अमेरिका को दिखाना चाहते हैं कि अब वे अकेले नहीं है। चीन,रूस और सीरिया जैसे राष्ट्र उनके साथ हैं। सारे प्रश्न और सारे संदेह किम जोंग को लेकर ही हो ऐसा भी नहीं है। प्रश्न अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को लेकर भी उठ रहे हैं। साल भर से उŸार कोरिया को धमकियां दे रहे ट्रंप बिना किसी शर्त के आमने -सामने की मुलाकात को क्योंकर तैयार हो गए?
     दरअसल दोनों ही नेताओं के लिए यह शिखर वार्ता उनके राजनीतिक जीवन के लिए एक संजिवनी की तरह है। ट्रंप की लोकप्रियता देश के भीतर कम हुई है। उनकी सरकार के पास दिखाने के लिए बहुत कम उपलब्धियां है। वह चाहते हैं कि अगर वे उŸार कोरिया को परमाणु कार्यक्रम से हटने के लिए राजी कर लेते हैं तो यह अतंरराष्ट्रीय राजनीति में एक ऐसी घटना होगी जिसकी ध्वनी अगले कई वर्षोें तक सुनाई देगी। इस शिखर वार्ता के दौरान अगर वे कोरिया समस्या का स्थाई समाधान करने या उस दिशा में कोई महत्वपूर्ण पहल करने में सफल हो पाते हैं तो उनका कद न केवल अमेरिका के भीतर बल्कि वैश्विक जगत में बहुत ऊंचा हो जाएगा। कुछ ऐसी ही स्थिति किम जोंग की है। मानवाधिकारों के हनन को लेकर वे अक्सर अंतरराष्ट्रीय आलोचनाओं का शिकार बनते रहे हैं। किम भी दक्षिण कोरिया की तरह अपने देश के नागरिकों को भी बेहतर जीवन सुविधाए देना चाहते हैं। यह तभी संभव है जब उत्तर कोरिया पर लगे आर्थिक प्रतिबंध हटे। किम चाहते हैं कि राष्ट्रपति टंªप के साथ वार्ता के दौरान प्रतिबंधों के मुद्दे पर बात हो। अमरीका के सामने फिर से कोरियाई प्रायद्वीप को परमाणुविहीन करने और मिसाइल परीक्षण ना करने की बात रखकर किम जांेग प्रतिबंधों में ढील चाहते हैं। वे अमेरिका के साथ ऐसी डील चाहते हंै, जो उनके देश की अर्थव्यवस्था एवं 2.5 करोड़ नागरिकों के हित मे हो।
     तो क्या उŸार कोरिया को लाइन पर लाने के लिए टंªप ने दबाव की जो नीति अपना रखी थी उसमे वे सफल रहे हैं। अगर टंªप ऐसा सोचते है तो यह केवल उनका वहम मात्र होगा। सच तो यह है कि नई राजनयिक रणनीति केवल ताकत या दबाव के आधार पर नहीं बल्कि आपसी जरूरतों से भी पैदा हुई है। उŸार कोरिया और अमरीका के बीच एतिहासिक वार्ता के बाद क्या होगा है यह देखना भी दिलचस्प होगा।
     किम की दक्षिण कोरिया की यात्रा के बाद कोरियाई प्रायद्वीप में स्थिति तेजी से बदली है। किम जोंग-उन और दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे-इन की ऐतिहासिक मुलाकात के सप्ताह भर पहले ही उत्तर कोरिया ने कहा था कि वो अपने परमाणु परीक्षण और इंटरकाॅन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम  पर रोक लगा रहा है। दक्षिण कोरिया और अमरीकी राष्ट्रपति सहित दुनिया भर के शांतिवादी विचारकों ने किम के इस कदम का स्वागत किया था। लेकिन प्रश्न यह पैदा होता है कि अपने तुनकमिजाजी स्वभाव के चलते पूरी दुनिया से टकराने का होसला रखने वाले किम जांेग-उन ने मिसाइल कार्यक्रम से हटने का निर्णय क्यों लिया। एक प्रश्न यह भी उठता है कि हमेशा अपने खोल में छिपे रहने वाले इस सनकी शासक को घर से बाहर निकलने की आवश्यकता क्यों पड़ी। जापान की ओर बार-बार मिसाइल दागने वाले किम जोंग ने जापान यात्रा के संकेत भी दिये हैं। ऐसे में इस संदेह से इंनकार नहीं किया जा सकता है कि वह अमेरिका से होने वाली वात्र्तालाप की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा हो।
     अनुमान तो यह भी लगाया जा रहा है कि उत्तर कोरिया की दिन प्रतिदिन कमजोर होती आर्थिक स्थिति ने भी किम को मिसाइल कार्यक्रम से हटने के लिए बाध्य किया है। इस तथ्य से इसलिए इंकार नहीं किया जा सकता है, क्योेंकि पिछले दिनों उत्तर कोरिया के एक मात्र भरोसेमंद सहयोगी चीन ने भी अमेरिका, यूके तथा फ्रांस के साथ मिलकर प्रतिबंध प्रस्तावों का समर्थन करने की बात कही थी। कहा तो यह भी जा रहा है कि परमाणु और मिसाइल ताकत हासिल करने के बाद किम जोंग अब अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। उन्हें लगने लगा है कि उन्होंने उŸार कोरिया के चारों और एक ऐसा मजबूत रक्षा कवच निर्मित कर लिया है जिसे अमेरिका और उसके सहयोगी देश चाहकर भी नहीं भेद सकेगे। सामरिक ताकत हासिल करने के बाद अब वे उŸार कोरिया को आर्थिक ताकत बनाना चाहते हैं, इसके लिए जरूरी है कि अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र द्वारा लगाए गए प्रतिबंध हटे। पिछले दिनों वे कह भी चूके हैं कि परमाणु परीक्षण रोकने के बाद अब वे उŸार कोरिया को एक शक्तिशाली समाजवादी अर्थवयवस्था बनाने की दिशा में काम करेगे। सच में अगर किम ऐसा चाहते हैं तो उन्हें सहयोगी राष्ट्रों के साथ गठजोड़ की रणनीति के अलावा पुराने मित्रों को साथ लेकर आगे बढ़ना होगा। ऐसे में चीन किम जोंग के लिए सबसे अहम होगा। वह उŸार कोरिया का पुराना व्यापारिक साझेदार रहा है। वे चीनी राष्ट्रपति से दो बार मिल चुके हैं। दोनों बार चर्चा का मुख्य मुद्दा व्यापार ही रहा है।
     लेकिन ऐसा नहीं है कि इस दौरान सभी कुछ उŸार कोरिया के पक्ष में रहा है। एक वक्त ऐसा भी आया जब अमरीका के उपराष्ट्रपति माइकपेंस पर उŸार कोरिया के उपविदेश मंत्री की टिप्पणी के कारण प्रस्तावित वार्ता रद्द होने की कगार तक पहंुच चुकी थी। लेकिन किम ने तो जैसे तय ही कर रखा था कि किसी भी किमत पर उनकी ट्रंप के साथ वार्ता हो। उन्होंने दोनों देशों के बीच सद्भाव का वातारण बनाने के लिए अमरीकी कैदियों को रिहा करने में गुरेज नहीं किया। जिस वक्त उन्होंने दक्षिण कोरिया के विंटर ओलिंपिंक में उŸार कोरिया की टीम भेजी थी उसी वक्त यह साफ हो गया था किम जोंग के दिमाग में कुछ नया चल रहा है। वे जानते थे कि जब तक वे दक्षिण कोरिया के साथ वार्ता कर सकारात्मक संकेत नहीं देगे  अमरीका किसी भी सूरत में उŸार कोरिया से बातचीत के लिए तैयार नहीं होगा।
     शिखर वार्ता के जरिये किम एक साथ कई चीजों को साधना चाहते हैं। वे जानते हैं कि टंªप परमाणु हथियारों को छोड़ने से कम किसी बात के लिए राजी नहीं होंगे। क्यों कि टंªप शुरू से ही कहते आए है कि परमाणु हथियार छोड़ना ही उŸार कोरिया के पास एक मात्र विकल्प है। ऐसे में अगर वार्ता पटरी से उतरती है तो इसके लिए ट्रंप उतरदायी होंगे न कि किम। द्वितीय, अगर दोनों नेताओं की वार्ता सीरे नहीं चढ पाती है तो अमेरिका के पास क्या विक्ल्प बचेगा? क्या अमेरिका लीबिया की तरह उŸार कोरिया में भी सैन्य कार्रवाई करेगा ? क्या किम का हसर भी कर्नल गद्दाफी जैसा होगा। रणनीति खेल में माहिर हो चुके किम वार्ता के लिए माहोल तैयार कर अमेरीका की सैन्य कोशिशों को पहले ही टाल देना चाहते हैं। फिर सबसे बड़ी बात यह है कि परमाणु परीक्षणों पर बैन की भी अपनी एक सीमा है। दूसरे, किम कभी भी इन हथियारों को समाप्त करने के लिए राजी नहीं होगें। वे जानते है कि यही हथियार उनके देश की सुरक्षा की गांरटी है। तब फिर, डोनाल्ड टंªप और किम जांेग-उन के बीच होने वाली शिखर वार्ता का अंत किस रूप में होगा यह अगले कुछ घंटों में स्पष्ट हो सकेगा।
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Tuesday, 1 May 2018

भविष्य की बेहतरी का ऐतिहासिक कदम

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     कई साल की धमकियों और तनाव के दौर के बाद आखिरकार उत्तर कोरिया और दंिक्षण कोरिया के राष्ट्राध्यक्ष वात्र्ता की टेबल तक आने के लिए राजी हुए। दोनों के बीच वात्र्ता हुई भी। यद्धपि दोनों के बीच किसी तरह का कोई औपचारिक अनुबंध या करार तो नहीें हो पाया लेकिन वात्र्ता के बाद जो संयुक्त घोषणा-पत्र जारी हुआ है, वह न केवल एशिया या कोरियाई प्रायद्वीप के लिए राहत देने वाला है, बल्कि उस पूरी दुनिया को शांति के प्रति आश्वसत करता है जो किम जोंग-उन की सनक के चलते आशंकित थी।
     अंतरराष्ट्रीय सीमा पर स्थित ऐतिहासिक गांव पनमुनजोम के हाऊस आॅफ पीस में बातचीत के बाद उत्तर कोरिया के शीर्ष नेता किम जोंग-उन और दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे-इन द्वारा जारी साझा घोषणा-पत्र में कोरिया प्रायद्वीप को परमाणु हथियारों से मुक्त करने, सीमा पर होने वाले प्रोपेगंेडा को रोककर वहां के असैन्य क्षेत्र को शांति जोन बनाये जाने, सीमाओं की वजह से बंट गए परिवारों को फिर से मिलाने, बेहतर कनैक्टिवीटी तथा  इस साल होने वाले एशियन गेम्स सहित अन्य खेल मुकाबलों में भाग लेते रहने की बात कही गई है। दोनों देशों ने उत्तर कोरिया के गैसंग में एक साझा दफ्तर खोलने का ऐलान भी किया।
     साल 1953 में कोरियाई युद्व के बाद ये पहला मौका है, जब किसी उत्तर कोरियाई नेता ने दक्षिण कोरियाई जमीन पर पैर रखा है। द्वितीय विश्व युद्व की समाप्ति के बाद अमरीका और सोवियत रूस ने कोरिया को दो भागों में बांट दिया। 1948 में इस देश की दो अलग-अलग सरकारें बन गई। कोरिया युद्व (1950-1953) ने दोनों देशों में शत्रुता की खाई को और चैड़ा कर दिया। इस ऐतिहासिक मुलाकात के सप्ताह भर पहले उत्तर कोरिया ने कहा कि वो अपने परमाणु परीक्षण और इंटरकाॅन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल छोड़ने पर फिलहाल रोक लगा रहा है। दक्षिण कोरिया और अमरीकी राष्ट्रपति सहित दुनिया भर के शांतिवादी विचारकों ने किम के इस कदम का स्वागत किया था। लेकिन प्रश्न यह पैदा होता है कि अपने तुनकमिजाजी स्वभाव के चलते पूरी दुनिया से टकराने का होसला रखने वाला किम जांेग-उन ने मिसाइल कार्यक्रम से हटने का निर्णय क्यों लिया। एक प्रश्न यह भी उठता है कि हमेशा अपने खोल में छिपे रहने वाले इस सनकी शासक को घर से बाहर निकलने की आवश्यकता क्यों पड़ी। पहले चीन और फिर दक्षिण कोरिया जाने वाले किम जोंग का अगले महीने अमेरिकी दौरा भी है। जापान की ओर बार-बार मिसाइल दागने वाले किम जोंग ने जापान यात्रा के संकेत भी दिये हैं। ऐसे में इस संदेह से इंनकार नहीं किया जा सकता है कि वह अमेरिका से होने वाली वात्र्तालाप की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा हो। उत्तर कोरिया की अर्थव्यवस्था का गला घोटने  के उद्ेश्य से अमरीका और संयुक्त राष्ट्र ने उत्तर कोरिया पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए हुए हैं। किम चाहते है कि उनकी अमरीका यात्रा के दौरान इन प्रतिबंधों के मुद्दे पर बात हो पर इससे पहले जरूरी है कि अमेरिकी समर्थक दक्षिण कोरिया के साथ उसके संबंधों में कुछ सुधार आए।
     अनुमान तो यह भी लगाया जा रहा है कि उत्तर कोरिया की दिन प्रतिदिन कमजोर होती आर्थिक स्थिति ने भी किम जोंग को मिसाइल कार्यक्रम से हटने के लिए बाध्य किया हो। इस तथ्य से इसलिए इंकार नहीं किया जा सकता है, क्योेंकि पिछले दिनों उत्तर कोरिया के एक मात्र भरोसेमंद सहयोगी चीन ने भी अमेरिका, यूके तथा फ्रांस के साथ मिलकर प्रतिबंध प्रस्तावों का समर्थन करने की बात कही थी । हो सकता है चीन की इस धमकी से किम जांेग ने परमाणु परीक्षण बंद करने की एकतरफा घोषणा की हो। कहा तो यह भी जा रहा है कि परमाणु और मिसाइल ताकत हासिल करने के बाद किम जोंग अब अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं, उन्हें लगने लगा है कि उन्होंने उŸार कोरिया के चारों और एक ऐसा मजबूत रक्षा कवच निर्मित कर लिया है जिसे अमेरिका और उसके सहयोगी देश चाहकर भी नहीं भेद सकेगे। सामरिक ताकत हासिल करने के बाद अब वह उŸार कोरिया को आर्थिक ताकत बनाना चाहते हैं, इसके लिए जरूरी है कि अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र द्वारा लगाए गए प्रतिबंध हटे।
     टेलीविजन पर लाइव प्रसारित वात्र्ता के दौरान दोनों नेता 6 दशक पहले छिड़े कोरियाई युद्व को हमेशा के लिए समाप्त करने पर राजी हुए। कोरिया युद्व के सैन्य समाधान की बजाए शांतिपूर्ण समाधान की दिशा में पहल के अलावा नियमित बैठकों और टेलिफोन के जरिये बातचीत करते रहने पर सहमति बनी। किम ने वादा किया की भविष्य में युद्व का दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास नहीं दौहराया जाएगा। कुल मिलाकर स्थिति चाहे जो भी हो संयुक्त घोषणा पत्र से कोरियाई प्रायद्वीप में शांति की एक धंूधली सी किरण तो दिखाई दी ही है ।
     घोषणा पत्र से बहुत बड़ी उम्मीद इसलिए नहीं की जा सकती है क्योकि किम जोंग-उन और मून जे-इन कि इस मुलाकात में परमाणु निरस्त्रीकरण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर कोई बात नहीं हुई। हो सकता है कि दक्षिण कोरिया ने जानबुझ कर परमाणु निरस्त्रीकरण को वार्Ÿाा के एजेंडे में शामिल न किया हो तथा इसे आगे के लिए टाल दिया गया हो। देखा जाए तो यह रणनीतिक रूप से सही भी है।  उत्तर कोरिया एकदम से अपना परमाणु कार्यक्रम छोड़ने को राजी हो जाएगा इसमें संदेह था। दशकों बाद हो रही बैठक में निरस्त्रीकरण के मुददे को उठाने का मतलब था वार्Ÿाा को पटरी से उतारना, क्यों कि दोनोें ही पक्षों के बीच लंबे समय से दुश्मनी का वातावरण, परस्पर संदेह व अविश्वास की स्थिति थी। फिर, ऐतिहासिक तथ्य भी किम जोंग को रूढिवादी दक्षिण कोरिया पर एक दम से विश्वास करने के लिए प्रेरित नहीं करते हैं। इससे पहले जोंग के पिता किम जांेग-इल भी दो दफा दक्षिण कोरिया के दौरे पर गए । पहली बार 2000 में किम डे-जंग के समय  और दूसरी बार 2007 में रो मू हयून के समय।  इस यात्रा के दौरान किम जोंग-इल की दंिक्षण कोरिया के राष्ट्रपतियों के साथ विभिन्न मुददों पर वार्Ÿाा के अलावा  दोनों देशों के बीच परमाणु हथियारों के खतरे और आर्थिक सहयोग बढानें जैसे जरूरी मुद्दों पर भी बात हुई लेकिन दक्षिण कोरिया की रूढिवादी सरकार के नजरीये में कोई परिर्वतन नहीं आया। उसने उतर कोरिया के खिलाफ कड़ा रूख अपनाए रखा। परिणामस्वरूप शांति के लिए किए जो  प्रयास किए जा रहे थे वे असफल हो गए।
    इसके अलावा घोषणा पत्र में साफ तौर पर उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम पर रोक लगाने की बात नहीं की गई है। लेकिन इतना जरूर कहा गया है कि पूरे कोरियाई प्रायद्वीप को परमाणु हथियारों से मुक्त किया जाए। संयुक्त ब्यान में चरणबद्ध तरीके से इस लक्ष्य को हासिल करने की बात भी कही गई लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करने की कोई स्पष्ट योजना या समय सीमा नहीं बताई गई। हालांकी दोनों नेताओं की इस  मुलाकात के दौरान आर्थिक और सामारिक रिश्ते मतबूत करने, उत्तर कोरिया में हिरासत में रखे गए विदेशियों की रिहाई व केसाॅन्ग औद्योगिक परिसर को फिर से खोलने पर भी बात होनी चाहिए थी। यह परिसर दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग का उदाहरण है, जिसे साल 2016 में बंद कर दिया गया था। इस बैठक में कोरियाई युद्व के कारण अलग हुए 60000 लोगों और उनके परिवारों पर भी चर्चा किए जाने के कयास थे। दोनों देशों के रिश्ते बिगड़ने से पहले इस बारे में 2015 में बातचीत हुई थी। उपरोक्त के अलावा मुद्दे और भी हो सकते थे जिन पर बात होनी चाहिए थी लेकिन नहीं हो पाई। फिर भी यह मुलाकात बेहतर शुरूआत का संकेत है, इसमें संदेह नहीं है।
     अब दोनों देशों के बीच आवाजाही का सिलसिला शुरू हो रहा है, अगली बार जब मून जे-इन उŸार कोरिया की यात्रा पर जाएगे तो उक्त मुददों पर चर्चा की जा सकती है। उम्मीद है तब तक दोनों देशों के बीच विश्वास बहाली की प्रक्रिया जारी रहेगी। उम्मीद इस बात की भी की जानी चाहिए की भविष्य की बेहतरी का जो ऐतिहासिक कदम दोनों कोरीयाई नेताआंेे ने उठाया है, उसके सुखद परिणाम जल्द ही दुनिया के सामने होगंे।
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Friday, 6 April 2018

संबंधों को खंगालने का अवसर


                                 
       
                                    
     नेपाल की स्थापित राजनयिक पंरपरा के अनुसार प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली अपनी पहली विदेश यात्रा पर भारत आए है। वहां यह पंरपरा है कि नेपाल का कोई भी प्रधानमंत्री विदेश यात्रा का आरंभ भारत के दौरे से करते हैं। ओली की इस यात्रा को केवल रस्मी यात्रा के तौर पर ही देखा जाए या ओली कोई संदेश लेकर आए है, यह तो उनके दौरे के बाद ही पता चलेगा लेकिन इतना तय है कि सदैव चीनी रंग में रंगे रहने वाले ओली जब पीएम नरेद्रमोदी से मिलेगे तो माहोल में वह गर्मजोशी शायद ही दिखे जो भारत की ’हग डिप्लोमेसी’ के चलते दिखती है। ओली के फरवरी में कार्यभार संभालने के बाद यह पहली यात्रा है।
     नेपाल में सŸाा परिर्वतन के बाद वहां बनी लेफ्ट सरकार के चीन की ओर झुकाव के चलते भारत-नेपाल संबंधों में खिंचाव आ गया। पिछले दिनों ही ओली ने एक इंटरव्यू में कहा था कि वह भारत के साथ संबंधों में बदलाव करना चाहते हैं। वह शुरू से ही भारत-नेपाल संबंधों के सभी आयामों की समीक्षा करने की बात कहते आए हैं। नेपाल की सत्तारूढ सीपीएन-यूएमएल के अध्यक्ष व पीएम ओली ने इंटरव्यू मंे यह भी कहा था कि हम किसी एक देश पर ही निर्भर नहीं रहगे। इसके अलावा ओली ने अपने चुनाव प्रचार अभियान के दौरान भी चीन को यह आश्वासन दिया था कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो नेपाल और चीन के बीच रेल सेवा शुरू करने की योजना पर विचार किया जाएगा। चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने भारत का मुद्दा प्रमुखता से उठाया था। उन्होंने अपने चुनाव घोषणा पत्र में यहां तक कह दिया था कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो नेपाल-भारत के बीच 1950 में हुई शांति और मैत्री संधि की समीक्षा की जाएगी। भारत और नेपाल के बीच संबंधों की शुरूआत 1950 में इसी शांति एवं मैत्री संधि द्वारा हुई थी। इसमें कहा गया था कि कोई भी सरकार किसी विदेशी आक्रमण द्वारा एक-दूसरे की प्रतिरक्षा को पैदा किया जाने वाला खतरा बदाशर््त नहीं करेगी और दोनों ही देशों के बीच संबंधों में कटुता पैदा करने वाले कारणों के बारे में एक-दूसरे को सूचित करेगी।’
     इससे पहले साल 2015 में जब केपीओली की सरकार आई थी तो उन्होंने भारतीय हितों की अनदेखी कर चीन के साथ महत्वपूर्ण समझौते किये ।  ओली के 10 माह के पहले कार्यकाल में चीन और नेपाल के बीच संबंध इतने गहरे विश्वास पर आधारित हो गए कि नेपाल को चीन की गोद से निकालना भारत के लिए लगभग नामूमकिन हो गया। पहले प्रचंड और फिर ओली के समय में काठमांडू और बीजिंग के बीच बढ़ती घनिष्ठता से यह लगने लगा कि नेपाल भारत के हाथ से निकल चुका है।
     प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की साल 2014 की नेपाल यात्रा और अप्रेल 2015 में आए विनाशकारी भूंकप के बाद भारत ने जिस उदार हद्वय से नेपाल की मद्द की उससे दोनों देशों के बीच संबंधों का नया दौर शुरू हुआ। परन्तु संबंधों का यह दौर ज्यादा वक्त नहीं चल सका। नवंबर 2015 में नया संविधान लागु किये जाने के बाद भड़की हिंसा व आंदोलन के चलते भारत-नेपाल संबंधों मेें पुनः तल्खी आने लगी। मधेसी आंदोलन के दौरान अघोषित नाकेबंदी से नेपाल मंे तेल, गैस व अन्य जरूरी वस्तुओं का संकट गहरा गया। ऐसी स्थिति में नेपाल ने चीन से मद्द की गुहार लगाते हुए मांग की कि वह नेपाल से लगने वाली चीनी सीमा को खोल दे ताकि वह जरूरत की चीजांे को खरीद सके। लेकिन नेपाल में आई प्राकृतिक आपदा के कारण नेपाल-चीन के बीच बना 27 किलोमीटर लंबा सड़क मार्ग पूरी तरह से टूट गया था जिसके चलते चीनी मद्द नेपाल नहीं पहंुच पाई। तब भारत ने सहायता सामग्री एवं अपने सैनिकों को नेपाल सरकार के साथ बचाव अभियान में सहयोग करने के लिए भेजा। लेकिन नेपाल ने भारत के इस सहयोगात्मक रवैय को विपरीत संदर्भ में देखा।
 भारत के सामने सबसे मुश्किल समस्या यह है कि वह चाहकर भी नेपाल के साथ पहले की तरह द्विपक्षीय संबंधों को विकसीत नहीं कर सकेगा। क्यों की दोनों देशों के बीच होने वाली किसी भी बातचीत पर चीनी प्रभाव की काली छाया सदैव मंडराती रहती है। दूसरी और नेपाल के हर घटनाक्रम पर बारीकी से निगाह रखने वाला चीन शायद ही ऐसी चूक करे कि ओली का रूख भारत की ओर हो। हाल ही में चीन और नेपाल के बीच तेल आपूर्ति और इन्फ्रास्ट्रक्चर डिवेलपमेंट को लेकर महत्वपूर्ण समझौते हुए हंै। वर्ष 2019 तक चीन काठमांडु को रेल लाइन द्वारा जोड़ने की योजना पर भी काम कर रहा है। स्थितियों का आंकलन यह बताता है कि भारत के मुकाबले चीन नेपाल में बेहतर स्थिति में है।
     यद्वपि भारत-नेपाल के बीच संबंधों का लंबा इतिहास रहा है, फिर भी दोनों देशों के बीच कुछ असहज करने वाले बिन्दू भी है। नेपाल अपने यहां स्थापित की जाने वाली कई विधुत परियोजनाओं का ठेका प्राथमिकता के साथ चीन को देने की तैयारी में है। अपनी अन्य आधारभूत संरचनाओं के निर्माण के मामले में भी ओली सरकार का यही रूख है। भारत को इस बात की आपत्ती नहीं है कि नेपाल चीन के साथ सबंधों को बढ़ा रहा है, उसका कहना है कि वह भारत के हित को नुक्सान पहंुचाने वाली किसी परियोजना में चीन के साथ न जुड़े। खास तौर से बिजली परियोजनाओ के मामले में।
     पीएम नरेद्रमोदी के आंमत्रण पर भारत आए ओली की इस यात्रा के दौरान जहां भारत एक ओर ऊर्जा और सुरक्षा क्षेत्र में अपनी आपतियों को नेपाल के साथ साझा करेगा वहीं नेपाल नवंबर 2016 में भारत में बंद हुए 1000 और 500 के पुराने नोटों को बदलने की मांग कर सकता है। नेपाल कई बार भारत से पुराने नोटों को बदलने के लिए कह चुका है, मगर तब से लेकर अब तक यह बात आगेे नहीं बढ़ी है। अब माना जा रहा है कि नेपाल के प्रधानमंत्री खुद पीएम मोदी से मिलकर इस विषय पर बात करेगें। नेपाल के पास करीब नौ अरब कीमत के पुराने नोट हैं। भारत यात्रा पर रवाना होने से पहले ओली का यह कहना कि वह भारत के साथ ऐसे किसी भी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करेगे जो नेपाल के राष्ट्रीय हितों के खिलाफ हो, से लगता है कि ओली खुले दिल से भारत नहीं आए है। इस लिए यह कहना गलत नहीं होगा कि नेपाली पीएम ओली की इस यात्रा का फोकस मुख्यतः किसी नए समझोते की जगह दोनों देशों के बीच हुए पुराने समझौतों को ही गति देने पर होगा।
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Tuesday, 27 March 2018

अमेरिकी बाजार व्यवस्था को किसका डर


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     अमेरिका फस्र्ट की नीति को अमली जामा देने के प्रयास में लगे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ताजा फैसले से अमरीका और चीन के बीच कारोबारी जंग के हालात बन गए है। चीन के उत्पादों पर 60 अरब डाॅलर का टैरिफ लगाने की ट्रंप की घोषणा के जवाब में चीन ने उसके 128 उत्पादों से शुल्क रियायतें हटाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। अमेरिका-चीन के इस कारोबारी टकराव को एक ऐसे व्यापारिक यु़द्व के आगाज के रूप में देखा जा रहा है जिसकी जद में एशियाई देशों सहित दुनिया के दूसरे अनेक देश आ सकते हैं।
     चीन से आयातित माल पर शुल्क लगाए जाने का फैसला लेने से पहले ट्रंप ने पिछले साल अगस्त में चीन की व्यापारिक नीतियों की जांच करने का आदेश दिया था। जांच में पाया गया कि अमेरिकी हितों को नुक्सान पंहुचाने के लिए चीन द्वारा योजनाबद्व तरीके से काम किया जा रहा है। चीन अपनी  व्यापारिक नीतियों का संचालन इस तरह से कर रहा है कि  अमेरिकी कंपनियों पर टैक्नोलाॅजी ट्रांसफर करने का दबाव बने । ट्रंप चीन के इस कार्य को बौद्विक संपदा की चोरी मानते है। चीन की इस नीति से अमरीकी कंपनियों के स्वतंत्र व्यापार संचालन में बाधा उपस्थित होती है। जांच रिर्पोट के आधार पर ट्रंप ने अमरीकी व्यापार कानून की धारा 301 के तहत चीन पर टैरिफ लगाए जाने का निर्णय लिया। इस धारा के अनुसार सरकार उन देशों पर एक तरफा प्रतिबंध लगा सकती है, जो व्यापार में गड़बड़ी करते हैं।
     चीन ने भी पलटवार करते हुए अमेरिका के कृषि उत्पादों पर शुल्क लगा दिया । चीन के इस कदम से दोनों देशों के बीच कारोबारी जंग के आसार नजर आने लगे हंै। माना जा रहा है कि कृषि प्रधान राज्यों में ट्रंप का बड़ा वोट बैंक है। ऐसे में ट्रंप अमेरिकी किसानों की आड़ में अपने समर्थकों के हितोें के लिए चीन पर अतिरिक्त दबाव बनाने के लिए नए फैसले ले सकते हंै। नतीजतन दोनों देशों के बीच एक ऐसी अंतहीन प्रतिस्पर्धा के शुरू होने की संभावना बढ़ गई है, जिसके गंभीर वैश्विक नतीजों से इंकार नहीं किया जा सकता।
     दरअसल राष्ट्रपति टंªप अमेरिका प्रथम के अपने चुनावी वादे को पूरा करने के लिए एक के बाद एक ऐसे फैसले लेते जा रहे हैं जिसका मकसद अमेरिकी रोजगार और अमेरिकी उद्योगों को संरक्षित करना है। जनवरी में वाॅशिंग मशीन और सोलर पैनलों के आयात पर टैक्स लगाने, 12 देशों के मुक्त व्यापार सौदे से  अमरीका को  अलग करने व कनाडा और मैक्सिको के साथ किए गए समझौते की समीक्षा जैसे फैसले ट्रंप की इसी सोच को प्रकट करते हैं। कोई संदेह नहीं कि ट्रंप के यह फैसले अमेरिकी जनता के हित मेें हो लेकिन दुनिया इसे संरक्षणवाद के आग्रह के रूप में देख रही है। इस समय जबकी वैश्विक आर्थिक व्यवस्था अपने पूरे शबाब पर है। डोनाल्ड टंªप ने चीन पर टैरिफ लगाए जाने संबंधी कदम क्यों  उठाया, यह विचारणीय है। क्या चीन का बढ़ता आर्थिक साम्राज्यवाद टंªप को विचलित कर रहा है? या फिर अमेरिकी बाजार व्यवस्था की नींव इतनी कमजोर हो गई है कि किसी भी आर्थिक शक्ति के प्रभाव से वह डगमगा उठे ? ऐसा तो नहीं लगता। तो फिर बिजनसमैन ट्रंप किससेे भयभीत है ? कंही ऐसा तो नहीं कि बाजार व्यवस्था के संरक्षण के नाम पर टंªप किसी चीज पर पर्दा डाल रहे हों ? अमरीका की आज की घरेलू राजनीति को देखते हुए इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है।  सच तो यह है कि अमेरिकी बाजार को सुरक्षित करने के नाम पर ट्रंप राष्ट्रपति चुनाव में रूसी हैंकरों के हस्तक्षेप और पोर्न अभिनेत्री के साथ संबंधों को लेकर उपजे विवाद से अमेरिकी जनता को घ्यान हटाना चाहते हैं? कारण चाहे जो भी हो लेकिन यह तय है कि टंªप के इस कदम से  उस बहुपक्षीय बाजार व्यवस्था को चुनौती मिलेगी जो 1990 के बाद से वैश्विक बाजारों को नियंत्रित करती आई हैं।
     ट्रप ने चीन के मुकाबले अमरिकी व्यापार घाटे को लेकर कई बार आवाज उठाई। उनका मानना है कि बौद्विक संपदा को सुरक्षित रखना अमरीकी अर्थव्यवस्था के  लिए बहुत जरूरी है। दो सप्ताह पहले जब उन्होंने स्टील और एल्यूमीनियम पर भारी टैरिफ लगाने का ऐलान किया था तभी इस बात की आंशका व्यक्त की जाने लगी थी कि आने वाले समय में चीन के साथ उसकी कारोबारी जंग छिड़ सकती है। अमेरिकी टैरिफ का असर अगर स्टील और एल्युमिनियम पर पडे़गा जिसका चीन बहुत बडा निर्यातक है, तो चीन के कदम से अमेरिकी बाजार प्रभावित होगा। चीन अमरिकी मक्का, सोयाबीन और मीट का बड़ा आयातक है। अमेरिका की बड़ी बैंकिग और फाइनेंस कंपनिया भी वहां काम कर रही है।ं यद्वपि आरंभ में चीन अमेरिका के साथ इस व्यापारिक प्रतिस्पर्धा को अधिक खींचने के मूढ में नहीं था। उसने अपनी ओर से इस बात के संकेत दिये थे कि वह अमरीका की संतुष्टि के लिए शुल्क संबंधी प्रावधानों को बदलने के लिए तैयार है। उसने कारोबारी रिश्तों में पड़ी दरार को पाटने के लिए एक प्रतिनिधि अमरीका भेजा भी था लेकिन बात बनी नहीं। ऐसे में टंªप के आक्रामक रवैय के चलते चीन को भी जवाबी कदम उठाने पडे़। 
     अमरीका-चीन की इस कारोबारी जंग की आशकाओं से भारत सहित दुनिया भर के शेयर बाजार प्रभावित हुए। वाॅल स्ट्रीट और एशियाई बाजारों में भारी गिरावट आ गई। जानकारों की माने तो भारत ग्लोबल व्यापार का बहुत छोटा सा खिलाड़ी है, महाशक्तियों के बीच छीड़ी कारोबारी जंग से भारत की अर्थव्यवस्था या भारत से होने वाले निर्यात पर बहुत ज्यादा असर पडेगा इस बात की संभावना कम है। फिर भी, इस तनातनी से मांग में गिरावट और लागत मूल्य में वृद्वि से कीमतें तेज हो सकती हंै। केयर रेटिंग ने भी अपनी रिर्पोट में ऐसी ही आशंका व्यक्त की है। रिर्पोट में कहा गया है कि अमरीका-चीन के बीच कारोबारी तनातनी ऐसे समय में बढ़ी है, जबकि वैश्विक अर्थव्यवस्था अभी मंदी के दौर से निकल रही थी। इस जंग के कारण अगर वैश्विक कारोबार की मात्रा कम होती है तो इसका असर भारत जैसे तमाम विकासशील देशों के निर्यात पर पडे़गा। परिणामस्वरूप अगले वित्तीय वर्ष में दो अंकों की वृद्वि दर का जो अनुमान लगाया गया है उस तक पहुंचना मुश्किल हो जाएगा।
     अमेरिका भारत का सबसे बड़ा निर्यात केंद्र है, जहां साल 2016-17 में 42.21 अरब डाॅलर का निर्यात हुआ जबकि इसी साल चीन भारत में निर्यात करने वाला सबसे बड़ा देश रहा है। अमरीका द्वारा निर्यात शुल्क बढ़ाये जाने के बाद चीन अपना माल खपाने के लिए नए बाजारों की तलाश करेगा। ऐसे में भारत में चीनी सामान का आयात और ज्यादा बढ़ सकता है।
     भारत का निर्यात पिछले एक साल से बढ़त की राह पर है, क्योंकि वैश्विक मांग तेजी पकड़ रही है। कारोबारी जंग के बाद मुद्रा में उतार-चढाव आता है। अमेरिकी सरकार के इस कदम से अमेरिकी मुद्रा मजबूत होने और दुनिया के अन्य मुद्राओं के कमजोर होने की उम्मीद हैं। रूपया और चीनी युआन के अलावा अन्य प्रतिस्पर्धी देशों की मुद्राओं में गिरावट की उम्मीद की जा रही है। जिन देशों के साथ अमेरिका का व्यापार संचालन घाटे में है उन पर अमेरिकी नीति का सीधा असर पडे़गा। एशियाई देश जो अमेरिका को बडी मात्रा में निर्यात करते हैं, मुनाफे के नाम पर उन्हें किसी भी वक्त टंªप के बदले रवैय का शिकार होना पड़ सकता है।
     दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच का यह युद्व वैश्विक बाजार व्यवस्था को किस ओर ले जाएगा इसके बारे में  अभी से कुछ कहना तो जल्दबाजी होगा, लेकिन इतना तय है कि टंªप जिस व्यापारिक युद्व को जीतना सरल समझ रहे हैं, वह इतना सरल नहीं है। टंªप यहां उसी गलती को दौहराते दिख रहे हैं जो गलती आज से 15 साल पहले इरान मामले में राष्ट्रपति जाॅर्ज डब्ल्यू बुश ने की थी जिसकी किमत अमरीका ने अपने 4400 सैनिक की जान से चूकाई थी।
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                                                                           ( व्याख्याता अर्तराष्ट्रीय राजनीति)
                                                                             एम.जे.जे. गल्र्स काॅलेज,सूरतगढ
                                                                              जिला- श्री गंगानगर (राज0)
                                                                              मो0 98284-41477
                                                                                  ई-मेल- ेदमीेवउंदप28/हउंपसण्बवउ


Thursday, 22 March 2018

रूस का पर्याय है पुतिन





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