अमेरिका फस्र्ट की नीति को अमली जामा देने के प्रयास में लगे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ताजा फैसले से अमरीका और चीन के बीच कारोबारी जंग के हालात बन गए है। चीन के उत्पादों पर 60 अरब डाॅलर का टैरिफ लगाने की ट्रंप की घोषणा के जवाब में चीन ने उसके 128 उत्पादों से शुल्क रियायतें हटाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। अमेरिका-चीन के इस कारोबारी टकराव को एक ऐसे व्यापारिक यु़द्व के आगाज के रूप में देखा जा रहा है जिसकी जद में एशियाई देशों सहित दुनिया के दूसरे अनेक देश आ सकते हैं।
चीन से आयातित माल पर शुल्क लगाए जाने का फैसला लेने से पहले ट्रंप ने पिछले साल अगस्त में चीन की व्यापारिक नीतियों की जांच करने का आदेश दिया था। जांच में पाया गया कि अमेरिकी हितों को नुक्सान पंहुचाने के लिए चीन द्वारा योजनाबद्व तरीके से काम किया जा रहा है। चीन अपनी व्यापारिक नीतियों का संचालन इस तरह से कर रहा है कि अमेरिकी कंपनियों पर टैक्नोलाॅजी ट्रांसफर करने का दबाव बने । ट्रंप चीन के इस कार्य को बौद्विक संपदा की चोरी मानते है। चीन की इस नीति से अमरीकी कंपनियों के स्वतंत्र व्यापार संचालन में बाधा उपस्थित होती है। जांच रिर्पोट के आधार पर ट्रंप ने अमरीकी व्यापार कानून की धारा 301 के तहत चीन पर टैरिफ लगाए जाने का निर्णय लिया। इस धारा के अनुसार सरकार उन देशों पर एक तरफा प्रतिबंध लगा सकती है, जो व्यापार में गड़बड़ी करते हैं।
चीन ने भी पलटवार करते हुए अमेरिका के कृषि उत्पादों पर शुल्क लगा दिया । चीन के इस कदम से दोनों देशों के बीच कारोबारी जंग के आसार नजर आने लगे हंै। माना जा रहा है कि कृषि प्रधान राज्यों में ट्रंप का बड़ा वोट बैंक है। ऐसे में ट्रंप अमेरिकी किसानों की आड़ में अपने समर्थकों के हितोें के लिए चीन पर अतिरिक्त दबाव बनाने के लिए नए फैसले ले सकते हंै। नतीजतन दोनों देशों के बीच एक ऐसी अंतहीन प्रतिस्पर्धा के शुरू होने की संभावना बढ़ गई है, जिसके गंभीर वैश्विक नतीजों से इंकार नहीं किया जा सकता।
दरअसल राष्ट्रपति टंªप अमेरिका प्रथम के अपने चुनावी वादे को पूरा करने के लिए एक के बाद एक ऐसे फैसले लेते जा रहे हैं जिसका मकसद अमेरिकी रोजगार और अमेरिकी उद्योगों को संरक्षित करना है। जनवरी में वाॅशिंग मशीन और सोलर पैनलों के आयात पर टैक्स लगाने, 12 देशों के मुक्त व्यापार सौदे से अमरीका को अलग करने व कनाडा और मैक्सिको के साथ किए गए समझौते की समीक्षा जैसे फैसले ट्रंप की इसी सोच को प्रकट करते हैं। कोई संदेह नहीं कि ट्रंप के यह फैसले अमेरिकी जनता के हित मेें हो लेकिन दुनिया इसे संरक्षणवाद के आग्रह के रूप में देख रही है। इस समय जबकी वैश्विक आर्थिक व्यवस्था अपने पूरे शबाब पर है। डोनाल्ड टंªप ने चीन पर टैरिफ लगाए जाने संबंधी कदम क्यों उठाया, यह विचारणीय है। क्या चीन का बढ़ता आर्थिक साम्राज्यवाद टंªप को विचलित कर रहा है? या फिर अमेरिकी बाजार व्यवस्था की नींव इतनी कमजोर हो गई है कि किसी भी आर्थिक शक्ति के प्रभाव से वह डगमगा उठे ? ऐसा तो नहीं लगता। तो फिर बिजनसमैन ट्रंप किससेे भयभीत है ? कंही ऐसा तो नहीं कि बाजार व्यवस्था के संरक्षण के नाम पर टंªप किसी चीज पर पर्दा डाल रहे हों ? अमरीका की आज की घरेलू राजनीति को देखते हुए इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है। सच तो यह है कि अमेरिकी बाजार को सुरक्षित करने के नाम पर ट्रंप राष्ट्रपति चुनाव में रूसी हैंकरों के हस्तक्षेप और पोर्न अभिनेत्री के साथ संबंधों को लेकर उपजे विवाद से अमेरिकी जनता को घ्यान हटाना चाहते हैं? कारण चाहे जो भी हो लेकिन यह तय है कि टंªप के इस कदम से उस बहुपक्षीय बाजार व्यवस्था को चुनौती मिलेगी जो 1990 के बाद से वैश्विक बाजारों को नियंत्रित करती आई हैं।
ट्रप ने चीन के मुकाबले अमरिकी व्यापार घाटे को लेकर कई बार आवाज उठाई। उनका मानना है कि बौद्विक संपदा को सुरक्षित रखना अमरीकी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत जरूरी है। दो सप्ताह पहले जब उन्होंने स्टील और एल्यूमीनियम पर भारी टैरिफ लगाने का ऐलान किया था तभी इस बात की आंशका व्यक्त की जाने लगी थी कि आने वाले समय में चीन के साथ उसकी कारोबारी जंग छिड़ सकती है। अमेरिकी टैरिफ का असर अगर स्टील और एल्युमिनियम पर पडे़गा जिसका चीन बहुत बडा निर्यातक है, तो चीन के कदम से अमेरिकी बाजार प्रभावित होगा। चीन अमरिकी मक्का, सोयाबीन और मीट का बड़ा आयातक है। अमेरिका की बड़ी बैंकिग और फाइनेंस कंपनिया भी वहां काम कर रही है।ं यद्वपि आरंभ में चीन अमेरिका के साथ इस व्यापारिक प्रतिस्पर्धा को अधिक खींचने के मूढ में नहीं था। उसने अपनी ओर से इस बात के संकेत दिये थे कि वह अमरीका की संतुष्टि के लिए शुल्क संबंधी प्रावधानों को बदलने के लिए तैयार है। उसने कारोबारी रिश्तों में पड़ी दरार को पाटने के लिए एक प्रतिनिधि अमरीका भेजा भी था लेकिन बात बनी नहीं। ऐसे में टंªप के आक्रामक रवैय के चलते चीन को भी जवाबी कदम उठाने पडे़।
अमरीका-चीन की इस कारोबारी जंग की आशकाओं से भारत सहित दुनिया भर के शेयर बाजार प्रभावित हुए। वाॅल स्ट्रीट और एशियाई बाजारों में भारी गिरावट आ गई। जानकारों की माने तो भारत ग्लोबल व्यापार का बहुत छोटा सा खिलाड़ी है, महाशक्तियों के बीच छीड़ी कारोबारी जंग से भारत की अर्थव्यवस्था या भारत से होने वाले निर्यात पर बहुत ज्यादा असर पडेगा इस बात की संभावना कम है। फिर भी, इस तनातनी से मांग में गिरावट और लागत मूल्य में वृद्वि से कीमतें तेज हो सकती हंै। केयर रेटिंग ने भी अपनी रिर्पोट में ऐसी ही आशंका व्यक्त की है। रिर्पोट में कहा गया है कि अमरीका-चीन के बीच कारोबारी तनातनी ऐसे समय में बढ़ी है, जबकि वैश्विक अर्थव्यवस्था अभी मंदी के दौर से निकल रही थी। इस जंग के कारण अगर वैश्विक कारोबार की मात्रा कम होती है तो इसका असर भारत जैसे तमाम विकासशील देशों के निर्यात पर पडे़गा। परिणामस्वरूप अगले वित्तीय वर्ष में दो अंकों की वृद्वि दर का जो अनुमान लगाया गया है उस तक पहुंचना मुश्किल हो जाएगा।
अमेरिका भारत का सबसे बड़ा निर्यात केंद्र है, जहां साल 2016-17 में 42.21 अरब डाॅलर का निर्यात हुआ जबकि इसी साल चीन भारत में निर्यात करने वाला सबसे बड़ा देश रहा है। अमरीका द्वारा निर्यात शुल्क बढ़ाये जाने के बाद चीन अपना माल खपाने के लिए नए बाजारों की तलाश करेगा। ऐसे में भारत में चीनी सामान का आयात और ज्यादा बढ़ सकता है।
भारत का निर्यात पिछले एक साल से बढ़त की राह पर है, क्योंकि वैश्विक मांग तेजी पकड़ रही है। कारोबारी जंग के बाद मुद्रा में उतार-चढाव आता है। अमेरिकी सरकार के इस कदम से अमेरिकी मुद्रा मजबूत होने और दुनिया के अन्य मुद्राओं के कमजोर होने की उम्मीद हैं। रूपया और चीनी युआन के अलावा अन्य प्रतिस्पर्धी देशों की मुद्राओं में गिरावट की उम्मीद की जा रही है। जिन देशों के साथ अमेरिका का व्यापार संचालन घाटे में है उन पर अमेरिकी नीति का सीधा असर पडे़गा। एशियाई देश जो अमेरिका को बडी मात्रा में निर्यात करते हैं, मुनाफे के नाम पर उन्हें किसी भी वक्त टंªप के बदले रवैय का शिकार होना पड़ सकता है।
दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच का यह युद्व वैश्विक बाजार व्यवस्था को किस ओर ले जाएगा इसके बारे में अभी से कुछ कहना तो जल्दबाजी होगा, लेकिन इतना तय है कि टंªप जिस व्यापारिक युद्व को जीतना सरल समझ रहे हैं, वह इतना सरल नहीं है। टंªप यहां उसी गलती को दौहराते दिख रहे हैं जो गलती आज से 15 साल पहले इरान मामले में राष्ट्रपति जाॅर्ज डब्ल्यू बुश ने की थी जिसकी किमत अमरीका ने अपने 4400 सैनिक की जान से चूकाई थी।
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( व्याख्याता अर्तराष्ट्रीय राजनीति)
एम.जे.जे. गल्र्स काॅलेज,सूरतगढ
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