Tuesday, 21 April 2015

ईरान समझौता: विश्व शांति की दिशा में कदम




                                        
               विवादास्पद परमाणु कार्यक्रम के मुददे पर महाशक्तियों व ईरान के बीच हुई सहमती इस दशक की एक बड़ी घटना है। एक ओर जहां अरब राष्ट्र सहित दुनियां के अनेक मुल्क अराजकता व गृहयुद्ध के दौर से गुज़र रहे हैं ऐसे हालात में ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर बनी सहमती पश्चिम एशिया सहीत शेष विश्व जगत की शान्ति व सुरक्षा की दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम है। स्विटज़रलैंड के लुसाने प्रांत में अमेरिका, ब्रिटेन, फांस, रूस, चीन, जर्मनी व ईरान के विदेश मंत्रियों के बीच आठ दिनों तक चली मैराथन वार्ता के बाद ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर सहमती के बिन्दु तय हुए। समझौते के अंतिम मसौदे पर 30 जून को हस्तक्षर किये जाऐगें। यह अच्छी बात है कि विश्व भर के नेताओं का ध्यान खींचने वाली इस बैठक का परिणाम सुखद रहा है। सबंधित पक्षों ने ईरान के रूख पर प्रसन्नता जताते हुए वार्ता में लगे विदेश मंत्रियों को इस ऐतिहासिक व दीर्घकालिक उपलब्धी के लिए बधाई दी। देखा जाए तो 12 वर्षो की लम्बी अवधि तक चली बातचित की प्रकिया के वास्तविक परिणाम नवम्बर 2013 के बाद ही दिखाई देने लगे थे जब जेनेवा में संयुक्त कार्य योजना नामक समझौेते पर हस्ताक्षर कियें गये थे। यूरोपिय संघ की विदेश नीति प्रमुख फैड्रिका मोधरनी की अध्यक्षता में जेनेवा में ईरान सहित विभिन्न देशों के विदेश मंत्रियों ने समझोैते के प्रारूप व ईरान की सहमती के विभिन्न बिन्दुओं पर लगातार चार दिन तक चर्चा की। बैठक में ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर व्यापक समझौते की रूप-रेखा तय करने का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस दृष्टि से देखंे तो ईरान को परमाणु कार्यक्रम की दिशा में आगे बढने से रोकने में लुसाने में बनी सहमती महत्वपूर्ण है। हालांकी लुसाने में हुई सहमती अंतिम दस्तावेज नहंीं है फिर भी इसके माध्यम से कुछ ज़रूरी मुद्दो को जरूर सुलझाया जा सका है। गत अगस्त में हसन रूहानी के राष्ट्रपति बनने के बाद से ही महाशक्तियों ने इस दिशा में गंभीर प्रयास शुरू कर दिये थे। रूहानी के साथ बैठकां के चले कई दौर के बाद अंततः सहमती के बिन्दु तय हो सके। ईरान इस बात पर राज़ी हो गया है कि वह दस वर्षो में सेंट्रीफ्यूजों की संख्या 19 हजार से घटाकार 10 हजार, फिर 6104 और अंत में 5060 कर देगा। अर्थात दो तिहाई मात्रा तक सेंट्रीफ्यूज घटा देगा। साथ ही यूरेनियम संवर्धन उतनी ही मात्रा में कर सकेगा जो उसकी बिजली उत्पादन की जरूरतो को पूरा कर सके। यह सहमती 15 वर्षो केे लिए होगी। खास बात यह है कि इस अवधि के दौरान ईरान कोई भी नया सवंर्धन प्लांट विकसित नहीं कर सकेगा अभी तक ईरान परमाणु संवर्धन की दिशा में इतना आगे बढ़ चुका है कि वह तीन या चार माह में एक बम बनाने लायक परमाणु का संवर्धन कर सकता है लेकिन अब इस सहमति के बाद बम निमार्ण का उसका कार्य प्रभावित होगा। ईरान इस बात के लिए भी राज़ी को गया है कि वह प्रयुक्त परमाणु ईधन का अनुसंधान नहीं करेगा। इसके अलावा ज़मीन से 200 फीट नीचे स्थित फारदो परमाणु रियेक्टर में यूरेनियम सवर्धन का कार्य अगले 15 वर्षों तक बन्द रहेगा। अन्र्तराष्ट्रीय संयुक्त उधम अरक में स्थित भारी जल का उपयोग करने वाले रियेक्टर के पुर्ननिर्माण में ईरान की मदद करेगा। पुर्ननिर्मित रियेक्टर का माॅडल इस तरह विकसित किया जायेगा कि उसमें परमाणु हथियार बनाने लायक सामग्री का उत्पादन व यूरेनियम का संवर्धन न हो सके। परमाणु कार्यक्रम पर हुई सहमति के अनुसार ईरान अपने देश के गोदामों में किसी प्रकार की विखण्डनीय सामग्री नहीं रखेगा। इसके अलावा वह अपने पूरे यूरेनियम स्टाॅक को असंवर्धित करने अथवा ईरान से बाहर दूसरी जगह स्थानान्तरित करने के लिए भी राज़ी हो गया है। ईरान ने इस बात पर भी सहमति जताई है कि वह अगले 15 वर्षों में यूरेनियम का संवर्धन करने के लिए नई सुविधाओं का निर्माण नहीं करेगा। यूरेनियम संवर्धन के अतिरिक्त ईरान के सैट्रीफ्यूजों तथा अन्य उपकरणों को अन्र्तराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी (प्।म्।) की देखरेख में रखा जायेगा। इसके अलावा ईरान के सभी परमाणु केन्द्र आईएईए के नियंत्रण में रहेगे। दूसरी तरफ इस समझौते से ईरान को सात अरब डाॅलर (करीब 44 हजार करोड़) रूपये की राहत मिलेगी, साथ ही महाशक्तियों अथवा यूरोपिय संघ द्वारा उस पर छः माह तक कोई नया प्रतिबंध नहीं लगाया जायेगा। इसके अलावा ईरान को आॅटोमोबाईल, पेट्रो रसायन और बहुमूल्य धातुओं के कारोबार में राहत मिलेगी लेकिन अगले छः माह तक वह कच्चे तेल की बिक्री नहीं बढ़ा सकेगा। ईरानी दृष्टिकोण से देखंे तो लुसाने में बनी सहमती कई अर्थों मे महत्वपूर्ण है। पश्चिमी ताकतों द्वारा उस पर लगाए गए प्रतिबंधों को वापिस लिए जाने से विश्व बिरादरी में ईरान की वापसी का रास्ता खुल जाएगा जिसके दूरगामी परिणाम होगे। प्रथम, तो अब तक अलग थलग पडे ईरान की आर्थिक मोर्चे पर सक्रियता बढेगी। प्रतिबंध हटने के बाद दुनिया भर के बाजार ईरान के तेल भंडार के लिए खुल जाऐगे। महाशक्तियों के दबाव के चलते भारत सहित एशिया व यूरोप के अनेक राष्ट्रों ने ईरान से तेल का आयात कम कर दिया था। प्रतिबधों के कारण ईरान रोजाना केवल 10 - 11 लाख बैरल कच्चा तेल ही निर्यात कर पा रहा था। अब प्रतिबंध हटने के बाद निर्यात कार्य में तेजी आएगी। देश में विदेशी पूंजी का स्रोत बढने से उसकी अर्थव्यवस्था में तेजी से बदलाव आएगा। सुधारों का नया दौर शुरू होगा। रोजगार के नये क्षेत्र विकसित होगे तथा अधूरी पड़ी विकास योजनाए तेेेजी से पूरी होगी। इन सुधारों से कट्टरपंथियों के स्वर तो पस्त होगें ही राष्ट्रपति हसन रूहानी का कद भी बढेगा। द्वितीय, आर्थिक और कुटनीतिक बिरादरी में ईरान के शामील होने से मध्य एशिया व पश्चिम एशिया के भू राजनीतिक परिदृश्य में भी बदलाव आएगा। इन बदलावों से अफ्रिका व यूरोप के अलावा शेष एशिया के राष्ट्र भी किसी न किसी रूप में कम या अधिक जरूर प्रभावित होगंे। तृतीय, ईरान के परम्परागत विरोधी इसरायल द्वारा समझोते पर असन्तोष जताना यह दिखाता है कि आने वाले समय में पश्चिम एशिया में अस्थिरता का नया दौर शुरू होगा। चतुर्थ, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा व उनके विदेश सचिव जाॅन कैरी की जुगलबंदी से सीरे चढे इस समझौते के बाद तुर्की व क्यूबा को भी अमेरिका के साथ अपने सम्बधों पर पुर्नविचार करना पडेगा। हालांकी समझौते को लेकर खुद राष्ट्रपति ओबामा को विरोध का सामना करना पड रहा हेै। कांग्रेस के भीतर भी ईरान के प्रति वांशिगटन के बदलते रवैये की आलोचना की जा रही है। भारतीय दृष्टिकोण से भी लुसाने समझौता महत्वपूर्ण है। भारत और ईरान के बीच बरसों पुराने संबंध है। भारत की तेल जरूरते काफी हद तक ईरान से पूरी होती है। चीन के बाद भारत ही ईरान का सबसे बडा तेल आयातक देश है। हालांकि प्रतिबंधो के दौर में अमेरिकी दबाव के चलते भारत ने भी तेहरान से आयात किये जाने वाले तेल की मात्रा घटा दी थी। पिछले दस वर्षों में पहली बार भारत ने मार्च माह में ईरान से तेल का आयात नहीं किया लेकिन अब प्रतिबंधांे के हटने के बाद भारत भी तेल आयात की मात्रा बढा देगा। साथ ही ईरान के मार्फत भारत मध्य ऐशिया तक अपनी पंहुच बढा सकता है। इसके अलावा भारत को अपनी अफगान नीति को नए सिरे से लागू करने का अवसर मिलेगा। भारतीय कूटनीतिज्ञों को यह अच्छे से समझना होगा कि ईरान के सहयोग के बिना हम मध्य एशिया के बाजारों तक नहीं पहुुंच पाएंगे। मध्य एशिया के बाजारों तक अपनी पंहुच बनाने के लिए हमें उसके बंदरगाह चाहिए यह तभी संभव होगा जब दोनों देशांे के बीच मजबूत आर्थिक संबंध विकसित हो।
                 एन. के. सोमानी
                                         1/94 पुराना बाजार सूरतगढ जिला श्रीगंगानगर (राज)
                                पिन 335804


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