मालदीव : जनविद्रोह या सैनिक विद्रोह
एन.के. सोमानी
मालदीव का जन विद्रोह सत्ता के संघर्ष में उलझता दिखाई पड़ रहा है। जन विद्रोह के बाद उभरा सत्ता संघर्ष मालदीव को किस दिशा में ले जाएगा, आने वाले अगले कुछ दिनों में स्पष्ट हो जाएगा।
मालदीवीयन डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता नशीद मोहम्मद ने अक्टूबर 2008 में तत्कालीन राष्ट्रपति मोमून अब्दुल गयूम को मालदीव के संसदीय इतिहास में आयोजित प्रथम बहुदलीय चुनावों में पराजित कर सत्ता प्राप्त की थी। नशीद की सरकार पहली लौकतांत्रिक सरकार और मोहम्मद नशीद प्रथम निर्वाचित राष्ट्रपति बने। डॉ. मोहम्मद वहीद हसन इन चुनावों में पहले उपराष्ट्रपति चुने गए थे। इससे पहले मोहम्मद गयूम लगातार 30 वर्षों तक मालदीव की शासन सत्ता पर काबिज रहे। लगातार 6 बार चुनाव जीतने के कारण गयूम ने लगभग तानाशाही पूर्ण तरीके से ही मालदीव पर शासन किया था।
मालदीव का मौजूदा राजनीतिक संकट वहां के एक वरिष्ठ न्यायाधीश की गिरफ्तारी से उत्पन्न हुआ, जिसका आदेश राष्ट्रपति नशीद ने दिया था। न्यायाधीश अब्दुला मोहम्मद पर भ्रष्टाचार और विपक्ष के प्रति वफादार होने का आरोप था। पूर्व राष्ट्रपति गयूम के समर्थक न्यायाधीश की गिरफ्तारी का विरोध करते हुए सडक़ों पर उतर गए। प्रदर्शनकारियों में बड़ी संख्या में विपक्षी दलों के लोग भी शामिल थे। स्थिति तब अधिक संकटपूर्ण हो गयी जब पुलिस व सेना के लोग प्रदर्शनकारियों के साथ सरकार विरोधी नारे लगाने लगे।
सत्ता को सेना के हाथों में जाते देख नशीद ने देश हित व लोकतंत्र के नाम पर त्यागपत्र देना उचित समझा। नशीद चाहते तो दूसरे तानाशाहों की तरह प्रदर्शनकारियों को बल प्रयोग से दबाने का प्रयास कर सकते थे पर न उनकी ऐसी इच्छा थी और न उनका ऐसा स्वभाव। वे सच्चे राष्ट्रवादी की तरह त्यागपत्र देकर सत्ता की कमान अपने कनिष्ठ सहयोगी उपराष्ट्रपति डॉ. वहीद को सौंप दी।
यहां तक तो ठीक व असली संकट तब खड़ा हुआ जब नशीद ने यह कहकर सनसनी फैला दी कि उन्हें बंदूक की नौक पर इस्तिफा देने के लिए मजबूर किया गया था। नशीद के इस बयान के बाद नशीद समर्थक सडक़ों पर उतर आए और नशीद को पुन: राष्ट्रपति पद सौंपे जाने की मांग करने लगे।
दरअसल मालदीव के मौजूदा संघर्ष में न्यायाधीश मोहम्मद की गिरफ्तारी तो केवल एक कारण मात्र है। वर्तमान संघर्ष की भूमिका बहुत पहले से ही लिखी जा रही थी। जिसकी पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं पूर्वराष्ट्रपति गयूम खड़े नजर आते है। वास्तविकता तो यह है कि राष्ट्रपति पद पर नशीद मोहम्मद की ताजपोशी गयूम और उनके समर्थकों को कभी रास ही नहीं आई। नशीद की नियुक्ति के बाद से ही मालदीव में एक तरह का संवैधानिक गतिरोध उत्पन्न हो गया था। बहुसंख्यक जनता कभी भी गयूम समर्थक थी। संसद के भीतर भी गयूम समर्थकों का बहुमत था। उदारवादी, मानवताप्रेमी और लोकतंत्र के हिमायती होने के बावजूद वे गयूम समर्थकों का निरन्तर विरोध झेलते रहे। दूसरी तरफ कट्टरपंथी ताकतों को उनका धर्म निरपेक्ष स्वरूप कभी रास नहीं आया। तमाम विपरीत परिस्थितियों के चलते भला नशीद कितने दिनों तक शासन कर पाते। अत: उनका जाना लगभग तय था।
लेकिन सबसे बड़ा प्रश्र यह है कि मालदीव के घटनाक्रम को जनविद्रोह कहा जाए या सैन्य तख्ता पलट? हालांकि मालदीव की मौजूदा सरकार ने इसे किसी भी रूप में तख्तापलट मानने से इनकार किया है। अमेरिका ने डॉ. वहीद की सरकार का समर्थन कर यह संदेश दिया है कि यह सैनिक विद्रोह नहीं बल्कि जनविद्रोह था।
दूसरी तरफ इसे जनविद्रोह इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि यदि जनता का एक वर्ग नशीद का विरोध कर रहा था तो एक बड़ा वर्ग नशीद को पुन: राष्ट्रपति पद सौंपे जाने की मांग कर रहा है। इसके अलावा जनता ने नशीद की कार्यशैली और सत्ता संचालन के तरीके का कभी विरोध किया हो ऐसा पिछले तीन वर्षों में कभी देखने को नहीं मिला। दूसरा अगर नशीद से मालदीव की जनता नाराज भी थी तो वह अगले वर्ष होने वाले चुनावों में नशीद के खिलाफ मतदान कर उसे सत्ताच्युत कर सकती थी।
सच्चाई यह है कि नशीद सच्चे राष्ट्रवादी व्यक्ति थे। मालदीव उनके हृदय में धडक़ता था। वे प्रतिशोध की नहीं क्षमा की भाषा बोलने वाले नेता हैं। गयूम के शासन काल में नशीद ने 6 वर्ष कारावास में बिताये थे। गयूम के ईशारे पर उन्हें डेढ़ वर्ष तक केवल इसलिए काल कोठरी में रखा गया था कि वे गयूम के विरुद्ध विद्रोह के अपराध को स्वीकार कर ले। सत्ता में आने के बाद नशीद ने एक बड़े और महान नेता की तर्ज पर उन सभी लोगों को माफ कर दिया जिन्होंने कभी उनको विभिन्न तरीकों से उत्पीडि़त किया था। गयूम के बारे में भी उन्होंने कहा था कि उनको उनसे कोई खतरा नहीं है। उन्हें देश छोडऩे की जरूरत नहीं है। वे देश के भीतर ही अपना बुढ़ापा बितायें। नि:संदेह नशीद ने कभी विरोधियों को परास्त करने के लिए राजनीतिक हथकंडों का सहारा नहीं लिया। वे अपनी कार्यशैली से अपने विरोधियों का मन जीतने का प्रयास करते थे।
जब दुनिया के बड़े नेता कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर बैठक कर रहे थे तब नशीद ने समुद्र के भीतर मंत्रिमंडल की प्रतिकात्मक बैठक कर जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से विश्व जनमत को आगाह करने का प्रयत्न किया। मालदीव सत्ता संघर्ष के संकट से कहीं अधिक अपने अस्तित्व पर उत्पन्न संकट से जुझ रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र का जलस्तर बढऩे से मालदीव के सामने अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। मालदीव का अधिकांश हिस्सा समुद्र की सतह से महज एक मीटर ऊपर है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगले कुछ वर्षों में यह देश समुद्र में समा सकता है।
मालदीव की शासन सत्ता का संचालन चाहे डॉ. वहीद हसन करे या मोहम्मद नशीद दोनों को ही परम्परागत सत्ता संघर्ष के दौर से बाहर निकलकर मालदीव के अस्तित्व की रक्षा हेतु संघर्ष करना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि सत्ता संघर्ष के चलते दुनियाभर में प्राकृतिक सुन्दरता और तटीय रिसोर्ट के लिए प्रसिद्ध यह छोटा सा देश काल का ग्रास बन जाए।
(लेखक अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।)
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