Monday, 1 October 2012

नाक के सवाल पर लड़ती आर्थिक महाशक्तियां -एन.के. सोमानी



दक्षिण पूर्व एशिया की दो सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्तियां- चीन व जापान के बीच तनातनी बढ़ती जा रही है। पूर्वी चीन सागर में जापान द्वारा विवादित द्वीपों की खरीद किए जाने की घटना से दोनों देशों के बीच तनाव उत्पन्न हो गया है। यद्यपि दोनों के बीच सीधे सैनिक मुकाबले की संभावना तो कम ही है, किन्तु आर्थिक क्षेत्र में पारस्परिक शक्ति आजमाइश के चलते हो सकता है कि मौजूदा तनाव किसी खतरनाक मोड़ पर पहुंच जाये।
पूर्वी चीन सागर में मौजूद द्वीप समूहों पर चीन और जापान के साथ-साथ ताइवान भी अपना दावा जताता रहा है। इन द्वीप समूहों पर इस समय जापान का कब्जा है। चीन ने इन द्वीपों पर श्वेत पत्र जारी कर विरोध प्रकट किया है। श्वेत पत्र के माध्यम से दियाओयू द्वीप और उससे लगे द्वीपों पर चीन ने निर्विवाद सम्प्रभुता का दावा किया है। चीन के राजकीय सूचना परिषद कार्यालय की ओर से जारी ‘दियाओयू द्वीप एन इनहरेंट टेरिटरी ऑफ चाइना’ शीर्षक वाले श्वेत पत्र में कहा गया है कि ये द्वीप ऐतिहासिक, भौगोलिक व कानूनी सन्दर्भों में चीन के अभिन्न हिस्से हैं। जापान द्वारा इनको खरीदा जाना न केवल चीन की क्षेत्रीय सम्प्रभुता का सरासर उल्लंघन है बल्कि ऐतिहासिक तथ्यों व अन्तर्राष्ट्रीय नियमों की भी उल्लंघना है।
इस निर्जन, किन्तु प्राकृतिक गैस और मछली के अकूत भण्डार की संभावना वाले इस द्वीप को जापान में ‘सेनकाकू’ तथा चीन में ‘दियाओयू’ द्वीप समूह के नाम से जाना जाता है। चीन, जापान और ताइवान इस पर अपना-अपना दावा जता रहे हैं। जापान व ताइवान के बीच तो पिछले सप्ताह द्वीप क्षेत्र में हल्की मुठभेड़ भी हो चुकी है। यद्यपि इस झड़प में ताइवान को पीछे हटना पड़ा था, लेकिन चीन द्वारा इन द्वीपों को किसी भी शर्त पर न छोडऩे के संकल्प से हो सकता है कि दक्षिण पूर्वी एशिया में शक्ति संघर्ष का नया दौर शुरू हो जाये। यद्यपि शक्ति संतुलन के चलते इसकी संभावना कम है, लेकिन फिर भी क्षेत्रीय सम्प्रभुता की स्व: घोषित परिभाषा के नाम पर एशिया की इन दोनों बड़ी आर्थिक ताकतों के बीच प्रतिष्ठा का प्रश्र बन चुका वर्तमान विवाद किस दिशा में जाएगा, आने वाले अगले कुछ दिनों में स्पष्ट हो सकेगा।
इस मुद्दे पर दोनों ही देशों के नेताओं पर घरेलु राजनीति का भी दबाव है, जिसके चलते दोनों एक-दूसरे के खिलाफ कड़ी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। चीन में होने वाले नेतृत्व परिवर्तन और जापान के चुनावों की हलचल के बीच नेताओं की आपसी कठोर बयानबाजी से विवाद कम होने की बजाय और अधिक बढ़ सकता है। चीन-जापान मैत्री संघ ने दोनों देशों के बीच मौजूदा तनातनी को देखते हुए राजनयिक संबंधों की 40 वीं वर्षगांठ पर आयोजित किए जाने वाले समारोह को भी स्थगित कर दिया है।
वर्ष 1972 से चीन-जापान के राजनयिक संबंध है। 1982 में चीन-जापान मैत्री संधि से दोनों देशों के नेताओं ने त्याओयू द्वीप का हल वार्ता द्वारा किए जाने पर सहमति जताई थी, जिसके परिणाम स्वरूप पिछले 40 वर्षों से दोनों देशों के बीच शांति बनी हुई थी।
लेकिन अब चीन सागर में जापान द्वारा द्वीपों के खरीदने के ताजे प्रकरण से दोनों देशों के बीच टकराव की स्थिति बन गई है। दोनों देशों के बीच पूर्व में भी अनेक अवसरों पर तनाव उत्पन्न होते रहे हैं। दोनों देशों का इतिहास भी आपसी संघर्षों से भरा हुआ है। लेकिन वर्तमान विवाद के चलते दोनों के बीच किसी बड़े सैनिक टकराव की संभावना कम ही है।  फिर भी अगर दोनों के बीच युद्ध के हालात बनते हैं तो सर्वप्रथम आर्थिक क्षेत्र में परस्पर शक्ति की आजमाइश होगी।
चीन, जापान का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, वहीं जापान चीन का चौथा सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी है। दोनों देशों के बीच व्यापार जापान के कुल विदेशी व्यापार का लगभग 20 प्रतिशत है। आर्थिक दृष्टि से दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। आर्थिक विकास हेतु दोनों के बीच व्यापारिक सहयोग बने रहना महत्वपूर्ण है, लेकिन त्याओयू द्वीप के मामले में दोनों के संबंधों में बड़ा तनाव आया है जिसके चलते विभिन्न क्षेत्रों में दोनों देशों के आर्थिक व व्यापारिक सहयोग प्रभावित हुए हैं।
दियाओयू द्वीप समूह प्राचीन समय से ही चीन का अभिन्न हिस्सा है। उसका कहना है कि यह क्षेत्र कभी ताइवान के नियंत्रण में था और वह यहां सदियों से मछली व्यापार करता  रहा है। चूंकि चीन ताइवान को भी अपना हिस्सा मानता है इसलिए यह निर्जन द्वीप समूह भी उसी के अधिकार क्षेत्र में आता है।
 ऐतिहासिक दस्तावेज भी बताते हैं कि ये द्वीप चीन के नक्शे पर मिंग राजवंश (1368-1644) के समय से मौजूद हैं। जबकि जापान ने इसे 1844 में खोजने का दावा किया था। तथ्यों के आधार पर इन द्वीप समूहों पर जापान का दावा 400 वर्षों से अधिक पुराना नहीं है। चीन का मानना है कि इन द्वीपों को सबसे पहले उसने खोजा था और उसका नामकरण भी किया था और लंबे समय तक वह इसका उपभोग भी करता रहा। 1895 में चीन-जापान युद्ध के दौरान जापान ने इन पर कब्जा कर लिया था जो कि अंतर्राष्ट्रीय नियमों के अनुसार अवैध तथा अनाधिकृत है। दूसरी तरफ जापान का दावा है कि उसने 10 वर्ष तक इन इलाकों का सर्वेक्षण किया। निर्जन क्षेत्र होने के कारण उसने 14 जनवरी 1895 को घोषणा की कि इस इलाके का अधिकार किसी के पास नहीं है इसलिए वह उसे अपने देश में शामिल कर रहा है। अब इस द्वीप में तेल के भण्डार होने की संभावना का पता चलते ही चीन ने इस पर अपना दावा जताना शुरू कर दिया है। लेकिन अब जापान ने इन द्वीपों को खरीद कर चीन की क्षेत्रीय सम्प्रभुता के दावे की हवा निकाल दी है। दोनों के बीच मामला इतना बढ़ गया है कि हांगकांग में जापान के खिलाफ प्रदर्शन भी हुए हैं। जापानी दुतावास के सामने प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच झड़पें भी हुई। बिजिंग में भी जापानी दुतावास के सामने लोगों ने प्रदर्शन किया, प्रदर्शन के दौरान गुस्साए लोगों ने जापान का राष्ट्रीय ध्वज भी जला दिया। ताइवान ने तो विरोध स्वरूप जापान से अपने राजदूत को वापस बुला लिया है। चीन के एक पूर्व सैनिक अधिकारी ने तो इस मुद्दे पर आर-पार की लड़ाई का आह्वान करते हुए कहा कि चीन की सेना जापान से निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार है। जापान को अपने हवाई व समुद्री ताकत पर ज्यादा घमण्ड करने की जरूरत नहीं है। उधर जापान के विदेश मंत्री ने चीन के रुख पर कड़ा विरोध करते हुए कहा कि उसके द्वारा द्वीप वापस करने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।
दोनों देशों के बीच जारी परस्पर बयानबाजी का परिणाम चाहे जो भी हो, लेकिन यह तय है कि आने वाले दिनों में एशिया महाद्वीप की भू-राजनीति का निर्धारण काफी हद तक दोनों देशों के आपसी संबंधों पर निर्भर करेगा। चीन-जापान के बीच आपसी लाभ वाले संबंधों का विकसित होना ही इस क्षेत्र के हित में है।
(लेखक अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं।)

-एन.के. सोमानी
(प्रोफेसर- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति)
एम.जे.जे. गल्र्स कॉलेज, सूरतगढ़
निवास : 1/94, पुराना बाजार, सूरतगढ़
जिला श्रीगंगानगर, राजस्थान
मो. 9828441477
श्व-रूड्डद्बद्य : ह्यठ्ठद्गद्धह्यशद्वड्डठ्ठद्ब२८ञ्चद्दद्वड्डद्बद्य.ष्शद्व

Saturday, 29 September 2012

ईरान-कनाडा : मुखरित हुआ विवाद

                                            





                                           

     नैम शिखर सम्मेलन की शानदार मेजबानी के बाद वैश्विक राजनीति में ईरान का कद यकायक बढ़ गया है। शिखर सम्मेलन की कामयाबी का खुमार ईरान पर से उतरता उससे पहले ही कनाड़ा ने उससे राजनीतिक सम्बंध तोडऩे की घोषणा कर दी। कनाडा ने बीते शुक्रवार को घोषणा की कि वह तेहरान में अपना दुतावास बंद कर रहा है। उसने ईरानी राजनयिको को भी अगले पांच दिनों के भीतर देश छोडऩे का एल्टीमेटम देकर दोनों देशों के बीच पायें जाने वाले परम्परागत तनावों को बढ़ा दिया है। कनाडा इस्लामिक गणतंत्र ईरान को विश्व शांति एवं सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा मानता है। उसका मानना है कि ईरान परमाणु हथियार निर्माण की दिशा में आगे बढ़ रहा है। वह ईरान को मानवाधिकारों का लगातार उल्लंघन करने वाला राष्ट्र मानता है। उसकी नजर में दुनिया भर के आतंकवादी समूहों को ईरान न केवल शरण देता है बल्कि उन्हें आर्थिक मदद भी प्रदान करता है। इतना ही नहीं उसने अपने स्थानीय कानून (आतंकवादी घटनाओं के पीडि़तों के लिए बने कानून) के तहत ईरान को आतंकवाद को प्रोत्साहन देने वाले देश के रूप में सूचीबद्ध करता है। कनाडा का यह भी आरोप है कि ईरान सीबिया की बशद अल असद सरकार को समर्थन दे रहा है और अपने परमाणु कार्यक्रमों को लेकर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों का समान नहीं करता है। दूसरी तरफ ईरान ने कनाडा पर ईसरायल और ब्रिटेन के प्रभावों में आकर राजनीतिक सम्बंध तोडऩे का आरोप लगाया है। ईरान का मानना है कि कनाडा सरकार द्वारा तेहरान से राजनीतिक सम्बंध विच्छेद करने की घटना तुच्छ राजनीतिक हितों से प्रेरित है। उसका मानना है कि नैम शिखर सम्मेलन की सफलता से बोखलाए पश्चिमी राष्ट्रों की शह पर कनाडा नेयह शरारत पूर्ण कदम उठाया है। पश्चिमी और यूरोपियन समूहों के राष्ट्र ये कभी नहीं चाहते थे कि ईरान नैम देशों के शिखर सम्मेलन की मैजबानी करे। उसने कनाडा पर तेहरान सम्मेलन को असफल करने के प्रयासों का भी आरोप लगाया। उसने इस बात का खुलासा किया कि केनेडियन विदेश मंत्री ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून के नाम लिखे पत्र में उन्हें तेहरान सम्मेलन में भाग न लेने का सुझाव दिया था। ईरान ने इस बात का भी खुलासा किया कि यूएनओ महासचिव के साथ-साथ कनाडा ने अन्य देशों से भी तेहरान शिखर सम्मेलन में भाग न लेने का आह्वान किया था। अन्तर्राष्ट्रीय आलोचनाओं के बावजूद यूएनओ महासचिव बान की मून तेहरान पहुंचे। अमरीका व ईसरायल ने यूएनओ महासचिव की निंदा करते हुए कहा था कि वे ईरान में नैम राष्ट्रों की बैठक में जाकर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में ईरान का कद बढ़ा रहे है। सम्मेलन से पूर्व पश्चिमी राष्ट्रों ने इस बात का भरपूर प्रयास किया था कि या तो तेहरान को इस सम्मेलन की मेजबानी का अवसर ही ना मिले या फिर तेहरान शिखर सम्मेलन कम देशों की उपस्थिति के चलते पूरी तरह से असफल हो जाए। सम्मेलन से पूर्व ईसरायली प्रधानमंत्री बैजामिन नेतान्यहू ने ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों पर हवाई हमले की धमकी देकर ईरान की तैयारियों में बाधा उपस्थित करने का प्रयास किया था। यहूदि शासन के नेता इस धमकी के द्वारा मनोवैज्ञानिक रूप से ईरान के इरादों को डिगाना चाहते थे। लेकिन तेहरान शिखर सम्मेलन में 100 राष्ट्रों के शासनाध्यक्षों सहित  120 देशों की उपस्थिति पश्चिम के उन कुछ वर्चस्ववादी देशों को करारा जवाब था जो पिछले कई वर्षों से यह प्रचार कर रहे थे कि विश्व समुदाय ईरान के परमाणु कार्यक्रम की ओर से चिंतित है। इस बैठक से ईरान ने यह साबित कर दिया है कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वह अकेला नहीं है। अब भी उसके साझेदार शेष है।
देखा जाए तो ईरान और कनाडा के बीच संबंध  हमेशा से ही विवादास्पद रहे हैं। अपने-अपने राष्ट्रीय हितों के चलते दोनों के बीच परस्पर आरोप-प्रत्यारोप और वाक युद्ध की स्थिति बनी रहती है। यूएनओ के भीतर भी कनाडा ने अनेक अवसरों पर ईरान की नीतियों का विरोध किया। 2009 में भी उसने यूएनओ महासभा में ईरानी राष्ट्रपति मोहम्मद अहमदीनेजाद के सम्बोधन का बहिष्कार किया था। इसी प्रकार अप्रेल 2010 से कनाडा खुले तौर पर ईरान के परमाणु संवर्धन कार्यक्रम का विरोध कर रहा है। उसने तेहरान सरकार पर अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के विरुद्ध कार्य करने का आरोप लगाते हुए कहा कि ईरानी सरकार वैश्विक सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है। ईरान पर लगाए गए प्रतिबंधों का समर्थन करते हुए कनाडा के तत्कालीन विदेश मंत्री केनन लॉरेन्स ने कहा कि कनाडा अपने मित्र राष्ट्रों के साथ मिलकर ईरान से अन्तर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा को उत्पन्न खतरे का प्रभावी से जवाब देगा। नवम्बर 2011 में ईरान को परमाणु कार्यक्रम की दिशा में आगे बढऩे से रोकने के लिए कनाडा ने अमेरिका और ब्रिटेन के सथ मिलकर कड़े प्रतिबंध लागू किए। यद्यपि रूस ने इन प्रतिबंधों की आलोचना की थी। ये प्रतिबंध लागू हो जाने के बाद ईरान का इन देशों के साथ किए गए समस्त व्यापारिक समझौते समाप्त हो जाएंगे। ईरान की पेट्रोकेमिकल इण्डस्ट्रीज सहित तेल व गैस के व्यापार पर भी प्रतिबंध लागू किए गए हैं। प्रतिबंधों के लागू हो जाने के बाद इन देशों की वित्तीय संस्थाएं और बैंक ईरान में किसी प्रकार का निवेश नहीं कर सकेंगे। यद्यपि ईरान पर लगाए गए ये प्रतिबंध संयुक्त राष्ट्र संघ में लागू नहीं हो पाए क्योंकि रूस और चीन ने इन प्रतिबंधों का विरोध किया था। इसी प्रकार जनवरी 2012 में ईरान की सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक ईरानी के खिलाफ सुनाए गए मृत्यु दण्ड के फैसले से भी दोनों देशों के बीच संबंध और अधिक तनावपूर्ण हो गए। 36 वर्षीय कम्प्यूटर इंजीनियर सईद मालेकपुर को प्रोनोग्राफिक वेबसाइट तैयार करने का आरोपी ठहराया गया था। अनेक अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों में ईरानी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की आलोचना करते हुए सईद को तत्काल रिहा किए जाने की मांग की थी। दोनों देशों के बीच उत्पन्न ताजा विवाद भी इन देशों का एक-दूसरे के प्रति उत्पन्न पारम्परिक नजरिेये का ही परिणाम है। ईरान में भी कनाडा की वर्तमान कार्यवाही का विरोध करते हुए ईरानी मजलिस (संसद) के स्पीकर अली लारीजानी की ओटावा यात्रा रद्द कर दी है। अली अगले महिने के अन्त में विदेशी संसदों के स्पीकरों के सम्मेलन में भाग लेने के लिए कनाडा जाने वाले थे।

एन.के. सोमानी
(लेखक अन्तर्राष्ट्रीय सम्बंधों के जानकार हैं।)
पुराना बाजार, सूरतगढ़
जिला श्रीगंगानगर, राजस्थान
मो. 09828441477

Thursday, 16 February 2012

मालदीव : जनविद्रोह या सैनिक विद्रोह

एन.के. सोमानी

मालदीव का जन विद्रोह सत्ता के संघर्ष में उलझता दिखाई पड़ रहा है। जन विद्रोह के बाद उभरा सत्ता संघर्ष मालदीव को किस दिशा में ले जाएगा, आने वाले अगले कुछ दिनों में स्पष्ट हो जाएगा।
मालदीवीयन डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता नशीद मोहम्मद ने अक्टूबर 2008 में तत्कालीन राष्ट्रपति मोमून अब्दुल गयूम को मालदीव के संसदीय इतिहास में आयोजित प्रथम बहुदलीय चुनावों में पराजित कर सत्ता प्राप्त की थी। नशीद की सरकार पहली लौकतांत्रिक सरकार और मोहम्मद नशीद प्रथम निर्वाचित राष्ट्रपति बने। डॉ. मोहम्मद वहीद हसन इन चुनावों में पहले उपराष्ट्रपति चुने गए थे। इससे पहले मोहम्मद गयूम लगातार 30 वर्षों तक मालदीव की शासन सत्ता पर काबिज रहे। लगातार 6 बार चुनाव जीतने के कारण गयूम ने लगभग तानाशाही पूर्ण तरीके से ही मालदीव पर शासन किया था।
मालदीव का मौजूदा राजनीतिक संकट वहां के एक वरिष्ठ न्यायाधीश की गिरफ्तारी से उत्पन्न हुआ, जिसका आदेश राष्ट्रपति नशीद ने दिया था। न्यायाधीश अब्दुला मोहम्मद पर भ्रष्टाचार और विपक्ष के प्रति वफादार होने का आरोप था। पूर्व राष्ट्रपति गयूम के समर्थक न्यायाधीश की गिरफ्तारी का विरोध करते हुए सडक़ों पर उतर गए। प्रदर्शनकारियों में बड़ी संख्या में विपक्षी दलों के लोग भी शामिल थे। स्थिति तब अधिक संकटपूर्ण हो गयी जब पुलिस सेना के लोग प्रदर्शनकारियों के साथ सरकार विरोधी नारे लगाने लगे।
सत्ता को सेना के हाथों में जाते देख नशीद ने देश हित लोकतंत्र के नाम पर त्यागपत्र देना उचित समझा। नशीद चाहते तो दूसरे तानाशाहों की तरह प्रदर्शनकारियों को बल प्रयोग से दबाने का प्रयास कर सकते थे पर उनकी ऐसी इच्छा थी और उनका ऐसा स्वभाव। वे सच्चे राष्ट्रवादी की तरह त्यागपत्र देकर सत्ता की कमान अपने कनिष्ठ सहयोगी उपराष्ट्रपति डॉ. वहीद को सौंप दी।
यहां तक तो ठीक असली संकट तब खड़ा हुआ जब नशीद ने यह कहकर सनसनी फैला दी कि उन्हें बंदूक की नौक पर इस्तिफा देने के लिए मजबूर किया गया था। नशीद के इस बयान के बाद नशीद समर्थक सडक़ों पर उतर आए और नशीद को पुन: राष्ट्रपति पद सौंपे जाने की मांग करने लगे।
दरअसल मालदीव के मौजूदा संघर्ष में न्यायाधीश मोहम्मद की गिरफ्तारी तो केवल एक कारण मात्र है। वर्तमान संघर्ष की भूमिका बहुत पहले से ही लिखी जा रही थी। जिसकी पृष्ठभूमि में कहीं कहीं पूर्वराष्ट्रपति गयूम खड़े नजर आते है। वास्तविकता तो यह है कि राष्ट्रपति पद पर नशीद मोहम्मद की ताजपोशी गयूम और उनके समर्थकों को कभी रास ही नहीं आई। नशीद की नियुक्ति के बाद से ही मालदीव में एक तरह का संवैधानिक गतिरोध उत्पन्न हो गया था। बहुसंख्यक जनता कभी भी गयूम समर्थक थी। संसद के भीतर भी गयूम समर्थकों का बहुमत था। उदारवादी, मानवताप्रेमी और लोकतंत्र के हिमायती होने के बावजूद वे गयूम समर्थकों का निरन्तर विरोध झेलते रहे। दूसरी तरफ कट्टरपंथी ताकतों को उनका धर्म निरपेक्ष स्वरूप कभी रास नहीं आया। तमाम विपरीत परिस्थितियों के चलते भला नशीद कितने दिनों तक शासन कर पाते। अत: उनका जाना लगभग तय था।
लेकिन सबसे बड़ा प्रश्र यह है कि मालदीव के घटनाक्रम को जनविद्रोह कहा जाए या सैन्य तख्ता पलट? हालांकि मालदीव की मौजूदा सरकार ने इसे किसी भी रूप में तख्तापलट मानने से इनकार किया है। अमेरिका ने डॉ. वहीद की सरकार का समर्थन कर यह संदेश दिया है कि यह सैनिक विद्रोह नहीं बल्कि जनविद्रोह था।
दूसरी तरफ इसे जनविद्रोह इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि यदि जनता का एक वर्ग नशीद का विरोध कर रहा था तो एक बड़ा वर्ग नशीद को पुन: राष्ट्रपति पद सौंपे जाने की मांग कर रहा है। इसके अलावा जनता ने नशीद की कार्यशैली और सत्ता संचालन के तरीके का कभी विरोध किया हो ऐसा पिछले तीन वर्षों में कभी देखने को नहीं मिला। दूसरा अगर नशीद से मालदीव की जनता नाराज भी थी तो वह अगले वर्ष होने वाले चुनावों में नशीद के खिलाफ मतदान कर उसे सत्ताच्युत कर सकती थी।
सच्चाई यह है कि नशीद सच्चे राष्ट्रवादी व्यक्ति थे। मालदीव उनके हृदय में धडक़ता था। वे प्रतिशोध की नहीं क्षमा की भाषा बोलने वाले नेता हैं। गयूम के शासन काल में नशीद ने 6 वर्ष कारावास में बिताये थे। गयूम के ईशारे पर उन्हें डेढ़ वर्ष तक केवल इसलिए काल कोठरी में रखा गया था कि वे गयूम के विरुद्ध विद्रोह के अपराध को स्वीकार कर ले। सत्ता में आने के बाद नशीद ने एक बड़े और महान नेता की तर्ज पर उन सभी लोगों को माफ कर दिया जिन्होंने कभी उनको विभिन्न तरीकों से उत्पीडि़त किया था। गयूम के बारे में भी उन्होंने कहा था कि उनको उनसे कोई खतरा नहीं है। उन्हें देश छोडऩे की जरूरत नहीं है। वे देश के भीतर ही अपना बुढ़ापा बितायें। नि:संदेह नशीद ने कभी विरोधियों को परास्त करने के लिए राजनीतिक हथकंडों का सहारा नहीं लिया। वे अपनी कार्यशैली से अपने विरोधियों का मन जीतने का प्रयास करते थे।
जब दुनिया के बड़े नेता कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर बैठक कर रहे थे तब नशीद ने समुद्र के भीतर मंत्रिमंडल की प्रतिकात्मक बैठक कर जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों से विश्व जनमत को आगाह करने का प्रयत्न किया। मालदीव सत्ता संघर्ष के संकट से कहीं अधिक अपने अस्तित्व पर उत्पन्न संकट से जुझ रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र का जलस्तर बढऩे से मालदीव के सामने अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। मालदीव का अधिकांश हिस्सा समुद्र की सतह से महज एक मीटर ऊपर है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगले कुछ वर्षों में यह देश समुद्र में समा सकता है।
मालदीव की शासन सत्ता का संचालन चाहे डॉ. वहीद हसन करे या मोहम्मद नशीद दोनों को ही परम्परागत सत्ता संघर्ष के दौर से बाहर निकलकर मालदीव के अस्तित्व की रक्षा हेतु संघर्ष करना चाहिए। कहीं ऐसा हो कि सत्ता संघर्ष के चलते दुनियाभर में प्राकृतिक सुन्दरता और तटीय रिसोर्ट के लिए प्रसिद्ध यह छोटा सा देश काल का ग्रास बन जाए।
(लेखक अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।)

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