Tuesday, 26 July 2011

चीन: न चेहरा बदला न सोच

समय बदला। परिस्थितियाँ बदलीं। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का रूप, स्वरूप और मानक भी बदले........। लेकिन तिब्बत के निर्वासित नेता  व आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा के प्रति चीन का नजरिया आज भी जस का तस है। पूर्वाग्रह और दुराग्रह से त्रस्त। एक पूरी की पूरी पीढ़ी बदल जाने के बाद भी लामा के प्रति निर्मित हो चुके चीन के विचारों में कोई बदलाव नहीं आया है। विश्व प्रसिद्ध दीवार की तरह चीन की यह उक्ति भी ‘जो लामा के साथ हैं, वो हमारे खिलाफ हैं’’ प्रसिद्ध हैं। उनकी दीवार और लामा के प्रति उनके विचार स्थायी हैं, स्थिर हैं। एक कमजोर, दुबले-पतले और वयोवृद्ध भगवांधारी संन्यासी से शक्तिशाली चीन इतना भय खाता है कि अनेक दफा तो उसके महाशक्ति होने पर भी सन्देह होने लगता है। कहा जाता है कि चीनी नेताओं को सपने में भी लामा दिखाई देते हैं........और वे तिब्बत! तिब्बत!! चिल्लाते हुए उठ खड़े होते हैं। हक्के-बक्के से सकपकाये हुए। चारों ओर भयभीत निगाहों से वस्तुस्थिति को परखकर साम्यवाद के कटोरे में पड़ी समाजवादी चाश्नी को चाट वे पुनः सोने का प्रयत्न करते हैं, लेकिन लामा की आहट उन्हें सोने नहीं देती......।
 लामा की यह आहट इस बार अमेरिका की तरफ से आई है। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने दलाई लामा को अमेरिका यात्रा का निमंत्रण दिया तो चीन के पेट में मरोड़े उठने लगे। पहले चीन घिघियाया। फिर राष्ट्रीय हितों की दुहाई दी। लेकिन महाशक्ति के महानायक ओबामा अपने कद के अनुरूप अपनी बात पर अडिग रहकर आध्यात्मिक गुरु से मुलाकात की तो चीन ने सुर बदलते हुए अमेरिका के इस कृत्य को चीन के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की संज्ञा दे डाली।
 चीन, तिब्बत से जुड़े मुद्दे को अपनी सम्प्रभुता और एकता से जुड़ा मुद्दा मानता है, जबकि दुनिया जानती है कि तिब्बत पर चीन का आधिपत्य पूर्ण रूप से अनाधिकृत है। तिब्बत पर चीन की हैसियत केवल एक अतिकर्मी राष्ट्र की है और अतिकर्मी राष्ट्र की कोई स्थायी सम्प्रभुता नहीं होती। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति शक्ति की राजनीति है। इस कठोर सच को चीन से बेहतर शायद ही कोई राष्ट्र समझता हो।
 चीनियों की यह स्वभावगत विशेषता है कि वे जिस क्षेत्र पर कब्जा करना चाहते हैं, पहले उसे विवादास्पद बताते हैं, फिर घुसपैठ के सहारे वातावरण बनाते हैं और अंत में सैनिक कार्यवाही के जरिये कब्जा जमाने का प्रयास करते हैं।
 भारत में अरुणाचल प्रदेश में चीन के तेवर पहले से कहीं ज्यादा आक्रामक दिखने लगे हैं। इस इलाके पर उसके दावे का आधार केवल इतना ही है कि चूँकि तिब्बत पर उसका कब्जा है, इसलिए तिब्बती संस्कृति से मेल खाता यह इलाका भी उसका है। दुर्भाग्य से हमारी कमजोर तिब्बत नीति के चलते अरुणाचल प्रदेश पर चीन का दुस्साहस लगातार बढ़ता जा रहा है। दलाई लामा की तो छोडि़ए, हमारे प्रधानमंत्री तक की अरुणाचल यात्रा को बीजिंग भारत-चीन संबंध को तनावग्रस्त करने वाली हरकत मानता है। साम्यवादी क्रांति के बाद के तीन दशकों में चीन ने राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति हेतु उग्र एवं सैन्यवादी नीति का अनुसरण किया। उसने कोरिया युद्ध में भाग लिया, सैन्य शक्ति द्वारा तिब्बत का चीन में विलय किया, युद्ध द्वारा भारत की हजारों किलोमीटर भूमि पर अधिकार किया। सोवियत संघ (रूस) से सीमा संघर्ष हुआ। पंचशील की दुहाई देने वाला चीन समय-समय पर अपने पड़ोसी राज्यों की सीमाओं पर अपना दावा ठोकता रहा है। सीमा विवाद के चलते चीन का 1962 में भारत से, 1969 में सोवियत संघ से और 1979 में वियतनाम से युद्ध हुआ।
 ताजा विवाद में चीन ने अमेरिका पर आरोप लगाया है कि वह लामा का इस्तेमाल चीन के खिलाफ एक मोहरे के रूप में कर रहा है। हालांकि उसने कहा है कि जब तक तिब्बत में हालात स्थिर हैं, तब तक अमेरिका का यह मोहरा बेकार साबित होगा।
 चीनी नेताओं के बारे में मैं कहना चाहूंगा कि वे जितने जमीन के ऊपर हैं, उतने ही जमीन के अंदर हैं। विश्व जगत के सामने चीन सदैव यही प्रदर्शित करने की कोशिश करता है कि उसके अधीन चीन में आंतरिक स्थिरता और पूर्ण व्यवस्था का माहौल है। लेकिन अगले ही क्षण चीन के मुस्लिम बाहुल्य प्रान्त जिनजियांग की राजधानी उरूमकी में हुई अप्रत्याशित जातीय हिंसा चीन के बड़बोलेपन की कलई खोल देती है। जिस तरह तिब्बत को जोर-जबरिया चीन का हिस्सा बनाया गया, उसी तरह माओ की लाल सेना ने जिनजियांग को चीनी गणराज्य का अंग बनाया।
 चीन का यह दावा भी हवा-हवाई साबित हुआ कि उसने अपने प्रति तिब्बतियों के विरोध को शांत कर दिया है। वर्ष 2008 में ल्हासा विद्रोह ने तो तिब्बत में राजनीतिक स्थिरता को लेकर चीनियों के दिमाग में आशंका के नये बीज बो दिये थे।
 सच तो यह है कि विस्तारवादी मानसिकता और अतिप्रतिक्रियावादी चीनी न किसी का हुआ है, न किसी का हो सकता है। उसके लिए अपने हित प्रथम हैं, शेष विश्व जगत गौण। तभी तो दलाई लामा जैसे मानवतावादी और स्वतंत्रता प्रेमी उसे शांति के पुजारी की बजाय संन्यासी के रूप में भेडि़या और देशद्रोही नजर आते हैं।

Tuesday, 19 July 2011

आलोचना रचना की पैरोकार

नगर संवाददाता & हनुमानगढ़  / 
विख्यात कवि व आलोचक डॉनीरज दइया का मानना है कि आलोचना रचना की पैरोकार है। लेखकों के मन में उठ रहे द्वंद्व को सही तरीके से आलोचक ही समझ पाता है और समीक्षा के माध्यम से उन्हें उन कमियों से रूबरू करवाता है जो लेखन के दौरान रह जाती है। डॉदइया की पुस्तक आलोचना रै आंगणै’ हाल में प्रकाशित हुई है। इसमें उन्होंने राजस्थानी साहित्य के पिछले साठ साल का विश्लेषण किया है। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान के राजस्थानी पाठ्यक्रम विषय समिति के संयोजक दइया राजस्थानी भाषा,साहित्य एवं संस्कृति अकादमी से जुड़े रहे हैं। पेशे से अध्यापक नीरज दइया केंद्रीय विद्यालय संगठन में पीजीटी थिंक क्वेस्ट’ संदर्भ व्यक्ति हैं। एक दिन के प्रवास पर हनुमानगढ़ पहुंचे डॉदइया से भास्कर’ ने राजस्थानी साहित्य से जुड़े तमाम बिंदुओं पर विस्तार से चर्चा की। 
राजस्थानी साहित्य में आलोचना की दशा व दिशा क्या हैसवाल पर दइया कहते हैं राजस्थानी साहित्य का दायरा निरंतर सिकुड़ता जा रहा है। अकादमी का काम ठप है। इससे साहित्य सृजन भी अवरुद्ध हुआ है। जब साहित्य का सृजन ही नहीं होगा तो उसकी आलोचना कैसे होगीराजस्थानी साहित्य अति प्राचीन है। करीब दो लाख प्राचीन पांडुलिपियों का प्रकाशन नहीं हो पाया। फिर भी स्थिति संतोषजनक है।’ राजस्थानी साहित्य के भविष्य पर उनका कहना था कि इसमें असीम संभावना है। बदलते परिवेश में जब हिंदी व अंग्रेजी का बोलबाला है तो इससे राजस्थानी सहित सभी क्षेत्रीय भाषाओं पर असर पड़ा है। ठेठ राजस्थानी शब्दों को क्षरण से जूझना पड़ रहा है लेकिन इसके लिए सामूहिक प्रयासों की जरूरत है। आम राजस्थानी अगर भाषा को लेकर गंभीर होगा तभी इसके गौरवशाली अतीत को बरकरार रखा जा सकता है। 
भाषा की लोकप्रियता में सरकारी प्रयास को बाधक तथा निजी स्तर पर प्रयासों पर चर्चा करते हुए दइया ने कहा कि अंग्रेजी व हिंदी के बढ़ते प्रभाव से राजस्थानी भाषा की उपेक्षा हुई है। भाषा को लेकर जन आकांक्षा जरूरी है। टीवी चैनलों पर कार्टून व कॉमिक्स आदि के प्रचलन से भाषा को चुनौती मिली है। फिर भी राजस्थानी भाषा को मान्यता मिलने पर स्थिति में बदलाव की उम्मीद है। राजस्थानी साहित्य की आलोचना में कोई बदलाव आया हैदइया बोले जी हांआलोचना का तरीका बदल रहा है। कुछ आलोचक पुस्तक के प्रकाशन व आवरण देखकर समीक्षा करते हैं तो कोई परिचयात्मक समीक्षा को महत्व देते हैं। आलोचना के क्षेत्र में नवीन युग का सूत्रपात हुआ है अब आलोक रचना को आलोचना के नवीन मानदंडों से परखते हैं। 
आलोचना व आलोचक के बीच द्वंद्व संबंधी बात पर वे बोले हर पंक्ति का अलग अर्थ है। आलोचक लेखक के मंतव्य को जानने का प्रयास करता है। रचना में लेखकीय दबाव को खोजा जाता है। जिन विषयों तक लेखक जाने से रह जाता हैआलोचक वहां तक पैठ करता है। कुल मिलाकर कहा जाए तो आलोचक सेतु का काम करता है। वह रचना में तमाम संभावनाओं की तलाश करता है। 
आलोचना व बुराई में अंतर को लेकर पूछे सवाल पर दइया ने कहा कि आलोचना का मूल भाव है समालोचना। प्रायरचना को विपक्ष की तरह देखता है। लेखक व आलोचक की अपनी सीमाएं हैं। सजग व ईमानदार आलोचना हो तो बेहतर परिणाम की उम्मीद करते हैं। कविआलोचक व लेखक होने के कारण किस विधा में सर्वाधिक वक्त देते हैंदइया कहते हैं कविताओं के साथ लेखन की शुरुआत की थी। फिर अनुवाद की तरफ रुख किया। इसलिए सभी विधाओं के निकट रहकर न्याय करने की कोशिश कर रहा हूं।
हनुमानगढ़ भास्कर