ईरान के साथ कारोबार करने वाले देशों पर प्रतिबंध लगाए जाने की अमेरीकी घोषणा के बाद तेल के वैश्विक बाजार में हलचल शुरू हो गई है। ईरान को पटरी पर लाने के लिए अमेरिका एक साथ दो मोर्चो पर काम कर रहा है। एक ओर राष्ट्रपति डोनाल्ड टंªप ओपेक (तेल उत्पादक देशों का संघ) देशों पर तेल के उत्पादन को बढाने का दबाव बना रहे हैं, वही दूसरी तरफ वह दुनिया के देशों को ईरान से तेल नहीं खरीदने के लिए बाध्य कर रहे है। अब तक जो परिणाम सामने आए हैं, उसमें ट्रंप दोनोें ही मोर्चों पर आगे बढ़ते दिखाई दे रहे हंै। ईरान का तेल उत्पादन जुलाई 2016 के बाद अब तक के सबसे न्यूनतम स्तर पर पहंुच चुका है।
अमेरिका ने विश्व समुदाय को 4 नवंबर तक की डेडलाईन दे रखी है। उसका कहना है कि 4 नवंबर से सभी देश ईरान से होने वाले तेल के आयात को रोक दे, नहीं तो उन्हें भी अमेरीकी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा। दूसरी ओर ईरान ने जवाबी कार्रवाई में यूरोपियन यूनियन (ईयू) के सदस्यों को धमकी दी है कि परमाणु समझौते से अमेरिका के अलग होने के बाद अगर यूरोपीय संघ अपने दायित्वों का निर्वहन करने में विफल रहता है, तो वह यूरेनियम संवर्धन की दिशा में आगे बढ़ने में गुरेज नहीं करेगा। यद्वपि ईरान ने समझौते से अलग होने की संभावना से इंनकार किया है। लेकिन, साथ ही उसने यूरोपीय सहयोगियों को आगाह किया है कि अगर वह समझौते में ईरान के हितों की सुरक्षा करने में विफल रहते हैं तो फिर ईरान कोई कदम उठा सकता है। इतना ही नहीं उसने ओपेक देशों पर भी आरोप लगाया है कि इसके कुछ सदस्यों ने पूरे संगठन को अमेरिका की कठपूतली बना दिया है। उसका इशारा सऊदी अरब और यूएई की ओर था। जून माह में जब ओपेक ने तेल उत्पादन को बढ़ाने पर सहमति दी थी तो ईरान ने ओपेक के इस कदम का विरोध किया था।
ईरान और छह देशों रूस, ब्रिटेन,चीन, फ्रांस, अमेरिका और जर्मनी ने 2015 में ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर एक ऐतिहासिक समझौता किया था। इस समझौते के बाद आर्थिक प्रतिबंधों को कम करने के बदले तेहरान अपनी न्यूक्लियर क्षमता को सीमित करने के लिए तैयार हो गया था।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा क कार्यकाल के दौरान 2015 में हुए ईरान परमाणु समझौते को मौजूदा दशक की एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में देखा जाता है। लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप ने इस साल मई में घोषणा की कि अमेरिका ईरान परमाणु समझौते से अपने को अलग कर रहा है। टंªप का मानना है कि यह समझौता ईरान के न्यूक्लियर बम को रोकने में नाकाम साबित हुआ है। वह यह भी कहते हैं कि इस समझौते के बाद भी ईरान गैर परमाणु बैलिस्टिक मिसाइल का निर्माण कर रहा है। साथ ही वह सीरिया, यमन और इराक में शिया लड़ाकों और हिजबुल्ला जैसे संगठनों को हथियार सप्लाई कर रहा है। जिसके चलते फिर से प्रतिबंध लागू किये गयेेेे है। इन प्रतिबंधों में ईरान के साथ व्यापारिक गतिविधियों को जारी रखने वाले देशों पर भी प्रतिबंध लगाने का प्रावधान किया गया है। अमेरिका ने दो टूक शब्दों में कहा है कि ईरान से तेल आयात करने वाले देशों को ईरान या अमेरिका में से किसी एक को चुनना होगा। हालांकी इसके लिए उसने अन्य देशों को थोडा वक्त और मौका जरूर दिया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि ट्रंप के ईरान पर लगाए गए आरोपों का आधार क्या है। वह किस आधार पर कह रहे है कि ईरान न्यूक्लियर बम न बनाने की अपनी शर्त पर नाकाम रहा है। क्या अमेरिका के पास इस बात के कोई पुख्ता प्रमाण है? अगर है, तो क्या उन प्रमाणों को अपने सहयोगी देशों के साथ साझा नहीं किया जाना चाहिए था। अकेले अमेरिका के अलावा क्या किसी अंतरराष्ट्रीय जांच एजेंसी ने इस बात का खुलासा किया है कि ईरान न्यूक्लियर टैस्ट की तैयारी कर रहा है। कंही ऐसा तो नहीं कि परमाणु समझौते की आड़ में टंªप अपने किन्ही छिपे हुए हितों को साध रहे हो। फिर सबसे अहम सवाल यह है कि समझौते में सम्मिलित बाकी पांचों देश अभी भी समझौते के पक्षकार बने हुए है। अमेरिकी आरोपों के बावजूद भी हाल-फिलहाल उन्होंने ईरान को लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। ऐसे में टंªप की नियत पर संदेह होना स्वाभाविक है।
पूरे मामले की तह तक जाने के लिए हमें इतिहास में कुछ पीछे जाना चाहिए। अमेरिका- ईरान संबंध उस वक्त बिगड़ने शुरू हुए जब 1979 की ईरान की इस्लामिक क्रांति के बाद अमेरिका के पिट्ठू कहे जाने वाले शाह मोहम्मद रजा पहलवी को अपदस्थ कर, आयतुल्लाह रूहोल्लाह खोमैनी के अधीन इस्लामिक गणतंत्र की स्थापना हुई थी। शाह और अमेरिकी गठजोड़ के अंत के बाद दोनों देशों के बीच अविश्वास की खाई गहराती चली गई। अमेरिका शाह की बर्खास्तगी को भूला नहीं पा रहा था। वह ईरान को सबक सिखाने के लिए किसी माकुल अवसर की तलाश में था।
इस बीच साल 2002 मंे ईरान के अघोषित परमाणु केंद्रो के खुलासे की खबरंे आई। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) का कहना था कि ईरान एक गुप्त परमाणु हथियार कार्यक्रम शरू करने की तैयारी कर रहा है, जिसका लक्ष्य मिसाइलों के लिए परमाणु हथियार बनाकर उनका परीक्षण करना है। अमेरिका इसी अवसर की तलाश में था। इसके बाद अमेरिका की अगुवाई में अतरराष्ट्रीय समुदाय ने ईरान पर कडे़ आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। प्रतिबंधों के कारण ईरान की अर्थव्यवस्था चरमरा उठी। इसके बाद पी5प्लस वन कही जाने वाली छह शक्तियों (अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, रूस और चीन ) के साथ उसकी बातचीत का लंबा दौर शुरू हुआ जिसका अंत जुलाई 2015 में वियना समझौते (ईरान परमाणु समझौते )के साथ हुआ। समझौते के तहत ईरान अपने करीब नौ टन सवंर्धित यूरेनियम भंडार को कम करके 300 किलोगा्रम तक करने के लिए राजी हो गया। समझौते की एक अन्य शर्त यह भी थी कि आईएईए को समय-समय पर इस बात की जांच करने की स्वतंत्रता होगी कि ईरान संधि के प्रावधानों का पालन कर रहा है या नहीं। इन शर्तों के बदले में पश्चिमी देश ईरान पर लगे प्रतिबंध हटाने पर सहमत हो गए। यहां एक ओर अहम सवाल यह भी उठता है कि क्या आईएईए ने ईरान में बीते तीन वर्षों में समझौते की शर्तों को लेकर किसी तरह का शक जाहीर किया है। या उसने किसी भी तरह से ईरान द्वारा समझौते की शर्तों का उल्लंघल किया जाना पाया है। अगर ऐसा नहीं है तो निश्चिय ही टंªप अपनी व्यक्तिगत खुंदस निकालने के लिए समझौते को तौड़ रहे हंै।
ट्रंप ईरान समझौता तोड़ने के पीछे की दूसरी वजह इसका बेहद उदार होना बताते हैं। उनका कहना है कि यह समझौता ईरान को तय सीमा से कंहीं अधिक हैवी वाॅटर( परमाणु रिएक्टरों के संचालन में इसका इस्तेमाल होता है।) प्राप्त करने और अतंरराष्ट्रीय जांचकर्ताओं को जांच के मामले में सीमित अधिकार देता है। ट्रंप का कहना है कि ईरान की इन हरकतों को रोकने के लिए इस समझौते को रद्द कर इसे और कठोर बनाया जाना चाहिए।
सच तो यह है कि समझौते से पीछे हटने की असल वजह अमेरिका की आंतरिक राजनीति भी है। साल 2015 में रूस, ईरान और हिजबुल्लाह के गठजोड़ के चलते उसे सीरिया में हार का सामना करना पड़ा था। अमेरिका और इसरायल अपनी लाख कोशिश के बावजूद सीरिया में बशर-अल -असद को हटा नहीं पाए। बहुत से यूरोपिय देश तो अमेरिका पर खुला आरोप लगा रहे हैं कि सीरिया की पराजय का बदला लेने और ईरान को सबक सिखाने के लिए उसने परमाणु समझौता तोड़ा है। द्वितीय, यह समझौता टंªप के लिए व्यक्तिगत तौर पर भी खासा महत्व रखता है। राष्ट्रपति चुनाव के दौरान भी उन्होंने इस मुददे को जमकर भुनाया था। ट्रंप ने प्रचार के दौरान वादा किया था कि ईरान को उसकी हरकत के लिए सजा देगे और परमाणु समझौता रद्द कर उस पर और कडे़ प्रतिबंध लगायेंगे। समझौता तोड़ने की घोषणा के दौरान उन्होंने कहा था कि मैं जो कहता हूं, वह करता हूं। तृतीय, प्रतिबंधों के जरिये उŸार कोरिया को काबू में करने वाले टंªप संभवत ईरान में भी इसी फार्मुले का प्रयोग कर रहे हो। अगर ऐसा है, तो निसंदेह यहां टंªप गलत ट्रेक पर है। ईरान और उŸार कोरिया कि स्थिति में जमीन आसमान का अंतर है। उŸार कोरिया एक कमजोर अर्थव्यवस्था वाला देश था। जबकी ईरान के पास तेल से होने वाली आय का एक बहुत बडा श्रोत है। दूसरा, उŸारकोरिया का अपने प्रमुख पड़ोसी दक्षिण कोरिया के साथ भी विवाद था और दक्षिण कोरिया अमेरिका का निकट सहयोगी था। जबकी ईरान के आस-पास की स्थिति ऐसी नहीं है, जहां अमेरिकी हस्तक्षेप की संभावना हो। तृतीय, उŸार कोरिया के पक्ष में एक अकेले चीन था, जबकी ईरान के साथ इस समय रूस व चीन दोनों खड़े है। ऐसे मंें ईरान अमेरिकी धमकियों के आगे आसानी से झुक जाएगा इसमे संदेह है।
सच्चाई चाहे जो भी अमेरिका-ईरान की इस लड़ाई में असल परीक्षा भारत की होनी है। भारत और ईरान के बीच दशकों पुराने संबंध है। भारत अपनी तेल जरूरतों के लिए काफी हद तक ईरान पर निर्भर करता है। इराक और सऊदी अरब के बाद ईरान भारत का तीसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकता देश है। ईरान से भारत को इस वक्त बड़ी मात्रा में रियायती दर पर तेल उपलब्ध हो रहा है। खास बात यह है कि भारत-ईरान के बीच रूपए-रियाल व्यापार व्यवस्था होने के कारण भारत अपनी मुद्रा रूपए में ईरान से तेल का आयात करता है। इसके अलावा भारत ईरान में चाबहार पोर्ट को विकसित कर रहा है। रणनीति दृष्टि से चाबहार भारत के लिए खासा महत्वपूर्ण है। भारत इसे मध्य एशिया, रूस और यूरोप के लिए गेटवे के रूप में विकसित कर रहा है।
हाल फिलहाल भारत असंमजस कि स्थिति मंे है। अमेरीकी दबाव के चलते अगर वह ईरान से तेल का आयात बंद करता है, तो संभव है ईरान में चल रही चाबहार सहीत अन्य परियोजनाएं प्रभावित होगी। दूसरी ओर अगर वह यूरोपीय संघ, रूस तथा चीन जैसे देशों का अनुसरण करते हुए ईरान से तेल व्यापार जारी रखता है तो न केवल अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत की साख बढे़गी बल्कि उसके स्वंत्रत विदेश नीति के सिद्वांत की कल्पना भी दुनिया तक पहुंच सकेगी। संभवत भारत दूसरे मार्ग का ही अनुसरण करे। विदेशमंत्री सुषमा स्वराज का वक्तव्य भारत के इसी दृष्टिकोण को प्रकट करता है जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा लगाए गये प्रतिबंधों को तो स्वीकार करने के लिए तैयार है, किन्तु वह किसी एक विशेष देश के फैसले को मानने के लिए प्रतिबद्व नहीं है। ऐसे मे देखना यह है कि भारत टू प्लस टू संवाद की पृष्ठभूमि के बीच वह ईरान से अपने संबंधों को कैसे साधकर चलता है।
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