Friday, 6 April 2018

संबंधों को खंगालने का अवसर


                                 
       
                                    
     नेपाल की स्थापित राजनयिक पंरपरा के अनुसार प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली अपनी पहली विदेश यात्रा पर भारत आए है। वहां यह पंरपरा है कि नेपाल का कोई भी प्रधानमंत्री विदेश यात्रा का आरंभ भारत के दौरे से करते हैं। ओली की इस यात्रा को केवल रस्मी यात्रा के तौर पर ही देखा जाए या ओली कोई संदेश लेकर आए है, यह तो उनके दौरे के बाद ही पता चलेगा लेकिन इतना तय है कि सदैव चीनी रंग में रंगे रहने वाले ओली जब पीएम नरेद्रमोदी से मिलेगे तो माहोल में वह गर्मजोशी शायद ही दिखे जो भारत की ’हग डिप्लोमेसी’ के चलते दिखती है। ओली के फरवरी में कार्यभार संभालने के बाद यह पहली यात्रा है।
     नेपाल में सŸाा परिर्वतन के बाद वहां बनी लेफ्ट सरकार के चीन की ओर झुकाव के चलते भारत-नेपाल संबंधों में खिंचाव आ गया। पिछले दिनों ही ओली ने एक इंटरव्यू में कहा था कि वह भारत के साथ संबंधों में बदलाव करना चाहते हैं। वह शुरू से ही भारत-नेपाल संबंधों के सभी आयामों की समीक्षा करने की बात कहते आए हैं। नेपाल की सत्तारूढ सीपीएन-यूएमएल के अध्यक्ष व पीएम ओली ने इंटरव्यू मंे यह भी कहा था कि हम किसी एक देश पर ही निर्भर नहीं रहगे। इसके अलावा ओली ने अपने चुनाव प्रचार अभियान के दौरान भी चीन को यह आश्वासन दिया था कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो नेपाल और चीन के बीच रेल सेवा शुरू करने की योजना पर विचार किया जाएगा। चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने भारत का मुद्दा प्रमुखता से उठाया था। उन्होंने अपने चुनाव घोषणा पत्र में यहां तक कह दिया था कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो नेपाल-भारत के बीच 1950 में हुई शांति और मैत्री संधि की समीक्षा की जाएगी। भारत और नेपाल के बीच संबंधों की शुरूआत 1950 में इसी शांति एवं मैत्री संधि द्वारा हुई थी। इसमें कहा गया था कि कोई भी सरकार किसी विदेशी आक्रमण द्वारा एक-दूसरे की प्रतिरक्षा को पैदा किया जाने वाला खतरा बदाशर््त नहीं करेगी और दोनों ही देशों के बीच संबंधों में कटुता पैदा करने वाले कारणों के बारे में एक-दूसरे को सूचित करेगी।’
     इससे पहले साल 2015 में जब केपीओली की सरकार आई थी तो उन्होंने भारतीय हितों की अनदेखी कर चीन के साथ महत्वपूर्ण समझौते किये ।  ओली के 10 माह के पहले कार्यकाल में चीन और नेपाल के बीच संबंध इतने गहरे विश्वास पर आधारित हो गए कि नेपाल को चीन की गोद से निकालना भारत के लिए लगभग नामूमकिन हो गया। पहले प्रचंड और फिर ओली के समय में काठमांडू और बीजिंग के बीच बढ़ती घनिष्ठता से यह लगने लगा कि नेपाल भारत के हाथ से निकल चुका है।
     प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की साल 2014 की नेपाल यात्रा और अप्रेल 2015 में आए विनाशकारी भूंकप के बाद भारत ने जिस उदार हद्वय से नेपाल की मद्द की उससे दोनों देशों के बीच संबंधों का नया दौर शुरू हुआ। परन्तु संबंधों का यह दौर ज्यादा वक्त नहीं चल सका। नवंबर 2015 में नया संविधान लागु किये जाने के बाद भड़की हिंसा व आंदोलन के चलते भारत-नेपाल संबंधों मेें पुनः तल्खी आने लगी। मधेसी आंदोलन के दौरान अघोषित नाकेबंदी से नेपाल मंे तेल, गैस व अन्य जरूरी वस्तुओं का संकट गहरा गया। ऐसी स्थिति में नेपाल ने चीन से मद्द की गुहार लगाते हुए मांग की कि वह नेपाल से लगने वाली चीनी सीमा को खोल दे ताकि वह जरूरत की चीजांे को खरीद सके। लेकिन नेपाल में आई प्राकृतिक आपदा के कारण नेपाल-चीन के बीच बना 27 किलोमीटर लंबा सड़क मार्ग पूरी तरह से टूट गया था जिसके चलते चीनी मद्द नेपाल नहीं पहंुच पाई। तब भारत ने सहायता सामग्री एवं अपने सैनिकों को नेपाल सरकार के साथ बचाव अभियान में सहयोग करने के लिए भेजा। लेकिन नेपाल ने भारत के इस सहयोगात्मक रवैय को विपरीत संदर्भ में देखा।
 भारत के सामने सबसे मुश्किल समस्या यह है कि वह चाहकर भी नेपाल के साथ पहले की तरह द्विपक्षीय संबंधों को विकसीत नहीं कर सकेगा। क्यों की दोनों देशों के बीच होने वाली किसी भी बातचीत पर चीनी प्रभाव की काली छाया सदैव मंडराती रहती है। दूसरी और नेपाल के हर घटनाक्रम पर बारीकी से निगाह रखने वाला चीन शायद ही ऐसी चूक करे कि ओली का रूख भारत की ओर हो। हाल ही में चीन और नेपाल के बीच तेल आपूर्ति और इन्फ्रास्ट्रक्चर डिवेलपमेंट को लेकर महत्वपूर्ण समझौते हुए हंै। वर्ष 2019 तक चीन काठमांडु को रेल लाइन द्वारा जोड़ने की योजना पर भी काम कर रहा है। स्थितियों का आंकलन यह बताता है कि भारत के मुकाबले चीन नेपाल में बेहतर स्थिति में है।
     यद्वपि भारत-नेपाल के बीच संबंधों का लंबा इतिहास रहा है, फिर भी दोनों देशों के बीच कुछ असहज करने वाले बिन्दू भी है। नेपाल अपने यहां स्थापित की जाने वाली कई विधुत परियोजनाओं का ठेका प्राथमिकता के साथ चीन को देने की तैयारी में है। अपनी अन्य आधारभूत संरचनाओं के निर्माण के मामले में भी ओली सरकार का यही रूख है। भारत को इस बात की आपत्ती नहीं है कि नेपाल चीन के साथ सबंधों को बढ़ा रहा है, उसका कहना है कि वह भारत के हित को नुक्सान पहंुचाने वाली किसी परियोजना में चीन के साथ न जुड़े। खास तौर से बिजली परियोजनाओ के मामले में।
     पीएम नरेद्रमोदी के आंमत्रण पर भारत आए ओली की इस यात्रा के दौरान जहां भारत एक ओर ऊर्जा और सुरक्षा क्षेत्र में अपनी आपतियों को नेपाल के साथ साझा करेगा वहीं नेपाल नवंबर 2016 में भारत में बंद हुए 1000 और 500 के पुराने नोटों को बदलने की मांग कर सकता है। नेपाल कई बार भारत से पुराने नोटों को बदलने के लिए कह चुका है, मगर तब से लेकर अब तक यह बात आगेे नहीं बढ़ी है। अब माना जा रहा है कि नेपाल के प्रधानमंत्री खुद पीएम मोदी से मिलकर इस विषय पर बात करेगें। नेपाल के पास करीब नौ अरब कीमत के पुराने नोट हैं। भारत यात्रा पर रवाना होने से पहले ओली का यह कहना कि वह भारत के साथ ऐसे किसी भी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करेगे जो नेपाल के राष्ट्रीय हितों के खिलाफ हो, से लगता है कि ओली खुले दिल से भारत नहीं आए है। इस लिए यह कहना गलत नहीं होगा कि नेपाली पीएम ओली की इस यात्रा का फोकस मुख्यतः किसी नए समझोते की जगह दोनों देशों के बीच हुए पुराने समझौतों को ही गति देने पर होगा।
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