Monday, 1 October 2012

नाक के सवाल पर लड़ती आर्थिक महाशक्तियां -एन.के. सोमानी



दक्षिण पूर्व एशिया की दो सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्तियां- चीन व जापान के बीच तनातनी बढ़ती जा रही है। पूर्वी चीन सागर में जापान द्वारा विवादित द्वीपों की खरीद किए जाने की घटना से दोनों देशों के बीच तनाव उत्पन्न हो गया है। यद्यपि दोनों के बीच सीधे सैनिक मुकाबले की संभावना तो कम ही है, किन्तु आर्थिक क्षेत्र में पारस्परिक शक्ति आजमाइश के चलते हो सकता है कि मौजूदा तनाव किसी खतरनाक मोड़ पर पहुंच जाये।
पूर्वी चीन सागर में मौजूद द्वीप समूहों पर चीन और जापान के साथ-साथ ताइवान भी अपना दावा जताता रहा है। इन द्वीप समूहों पर इस समय जापान का कब्जा है। चीन ने इन द्वीपों पर श्वेत पत्र जारी कर विरोध प्रकट किया है। श्वेत पत्र के माध्यम से दियाओयू द्वीप और उससे लगे द्वीपों पर चीन ने निर्विवाद सम्प्रभुता का दावा किया है। चीन के राजकीय सूचना परिषद कार्यालय की ओर से जारी ‘दियाओयू द्वीप एन इनहरेंट टेरिटरी ऑफ चाइना’ शीर्षक वाले श्वेत पत्र में कहा गया है कि ये द्वीप ऐतिहासिक, भौगोलिक व कानूनी सन्दर्भों में चीन के अभिन्न हिस्से हैं। जापान द्वारा इनको खरीदा जाना न केवल चीन की क्षेत्रीय सम्प्रभुता का सरासर उल्लंघन है बल्कि ऐतिहासिक तथ्यों व अन्तर्राष्ट्रीय नियमों की भी उल्लंघना है।
इस निर्जन, किन्तु प्राकृतिक गैस और मछली के अकूत भण्डार की संभावना वाले इस द्वीप को जापान में ‘सेनकाकू’ तथा चीन में ‘दियाओयू’ द्वीप समूह के नाम से जाना जाता है। चीन, जापान और ताइवान इस पर अपना-अपना दावा जता रहे हैं। जापान व ताइवान के बीच तो पिछले सप्ताह द्वीप क्षेत्र में हल्की मुठभेड़ भी हो चुकी है। यद्यपि इस झड़प में ताइवान को पीछे हटना पड़ा था, लेकिन चीन द्वारा इन द्वीपों को किसी भी शर्त पर न छोडऩे के संकल्प से हो सकता है कि दक्षिण पूर्वी एशिया में शक्ति संघर्ष का नया दौर शुरू हो जाये। यद्यपि शक्ति संतुलन के चलते इसकी संभावना कम है, लेकिन फिर भी क्षेत्रीय सम्प्रभुता की स्व: घोषित परिभाषा के नाम पर एशिया की इन दोनों बड़ी आर्थिक ताकतों के बीच प्रतिष्ठा का प्रश्र बन चुका वर्तमान विवाद किस दिशा में जाएगा, आने वाले अगले कुछ दिनों में स्पष्ट हो सकेगा।
इस मुद्दे पर दोनों ही देशों के नेताओं पर घरेलु राजनीति का भी दबाव है, जिसके चलते दोनों एक-दूसरे के खिलाफ कड़ी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। चीन में होने वाले नेतृत्व परिवर्तन और जापान के चुनावों की हलचल के बीच नेताओं की आपसी कठोर बयानबाजी से विवाद कम होने की बजाय और अधिक बढ़ सकता है। चीन-जापान मैत्री संघ ने दोनों देशों के बीच मौजूदा तनातनी को देखते हुए राजनयिक संबंधों की 40 वीं वर्षगांठ पर आयोजित किए जाने वाले समारोह को भी स्थगित कर दिया है।
वर्ष 1972 से चीन-जापान के राजनयिक संबंध है। 1982 में चीन-जापान मैत्री संधि से दोनों देशों के नेताओं ने त्याओयू द्वीप का हल वार्ता द्वारा किए जाने पर सहमति जताई थी, जिसके परिणाम स्वरूप पिछले 40 वर्षों से दोनों देशों के बीच शांति बनी हुई थी।
लेकिन अब चीन सागर में जापान द्वारा द्वीपों के खरीदने के ताजे प्रकरण से दोनों देशों के बीच टकराव की स्थिति बन गई है। दोनों देशों के बीच पूर्व में भी अनेक अवसरों पर तनाव उत्पन्न होते रहे हैं। दोनों देशों का इतिहास भी आपसी संघर्षों से भरा हुआ है। लेकिन वर्तमान विवाद के चलते दोनों के बीच किसी बड़े सैनिक टकराव की संभावना कम ही है।  फिर भी अगर दोनों के बीच युद्ध के हालात बनते हैं तो सर्वप्रथम आर्थिक क्षेत्र में परस्पर शक्ति की आजमाइश होगी।
चीन, जापान का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, वहीं जापान चीन का चौथा सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी है। दोनों देशों के बीच व्यापार जापान के कुल विदेशी व्यापार का लगभग 20 प्रतिशत है। आर्थिक दृष्टि से दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। आर्थिक विकास हेतु दोनों के बीच व्यापारिक सहयोग बने रहना महत्वपूर्ण है, लेकिन त्याओयू द्वीप के मामले में दोनों के संबंधों में बड़ा तनाव आया है जिसके चलते विभिन्न क्षेत्रों में दोनों देशों के आर्थिक व व्यापारिक सहयोग प्रभावित हुए हैं।
दियाओयू द्वीप समूह प्राचीन समय से ही चीन का अभिन्न हिस्सा है। उसका कहना है कि यह क्षेत्र कभी ताइवान के नियंत्रण में था और वह यहां सदियों से मछली व्यापार करता  रहा है। चूंकि चीन ताइवान को भी अपना हिस्सा मानता है इसलिए यह निर्जन द्वीप समूह भी उसी के अधिकार क्षेत्र में आता है।
 ऐतिहासिक दस्तावेज भी बताते हैं कि ये द्वीप चीन के नक्शे पर मिंग राजवंश (1368-1644) के समय से मौजूद हैं। जबकि जापान ने इसे 1844 में खोजने का दावा किया था। तथ्यों के आधार पर इन द्वीप समूहों पर जापान का दावा 400 वर्षों से अधिक पुराना नहीं है। चीन का मानना है कि इन द्वीपों को सबसे पहले उसने खोजा था और उसका नामकरण भी किया था और लंबे समय तक वह इसका उपभोग भी करता रहा। 1895 में चीन-जापान युद्ध के दौरान जापान ने इन पर कब्जा कर लिया था जो कि अंतर्राष्ट्रीय नियमों के अनुसार अवैध तथा अनाधिकृत है। दूसरी तरफ जापान का दावा है कि उसने 10 वर्ष तक इन इलाकों का सर्वेक्षण किया। निर्जन क्षेत्र होने के कारण उसने 14 जनवरी 1895 को घोषणा की कि इस इलाके का अधिकार किसी के पास नहीं है इसलिए वह उसे अपने देश में शामिल कर रहा है। अब इस द्वीप में तेल के भण्डार होने की संभावना का पता चलते ही चीन ने इस पर अपना दावा जताना शुरू कर दिया है। लेकिन अब जापान ने इन द्वीपों को खरीद कर चीन की क्षेत्रीय सम्प्रभुता के दावे की हवा निकाल दी है। दोनों के बीच मामला इतना बढ़ गया है कि हांगकांग में जापान के खिलाफ प्रदर्शन भी हुए हैं। जापानी दुतावास के सामने प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच झड़पें भी हुई। बिजिंग में भी जापानी दुतावास के सामने लोगों ने प्रदर्शन किया, प्रदर्शन के दौरान गुस्साए लोगों ने जापान का राष्ट्रीय ध्वज भी जला दिया। ताइवान ने तो विरोध स्वरूप जापान से अपने राजदूत को वापस बुला लिया है। चीन के एक पूर्व सैनिक अधिकारी ने तो इस मुद्दे पर आर-पार की लड़ाई का आह्वान करते हुए कहा कि चीन की सेना जापान से निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार है। जापान को अपने हवाई व समुद्री ताकत पर ज्यादा घमण्ड करने की जरूरत नहीं है। उधर जापान के विदेश मंत्री ने चीन के रुख पर कड़ा विरोध करते हुए कहा कि उसके द्वारा द्वीप वापस करने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।
दोनों देशों के बीच जारी परस्पर बयानबाजी का परिणाम चाहे जो भी हो, लेकिन यह तय है कि आने वाले दिनों में एशिया महाद्वीप की भू-राजनीति का निर्धारण काफी हद तक दोनों देशों के आपसी संबंधों पर निर्भर करेगा। चीन-जापान के बीच आपसी लाभ वाले संबंधों का विकसित होना ही इस क्षेत्र के हित में है।
(लेखक अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं।)

-एन.के. सोमानी
(प्रोफेसर- अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति)
एम.जे.जे. गल्र्स कॉलेज, सूरतगढ़
निवास : 1/94, पुराना बाजार, सूरतगढ़
जिला श्रीगंगानगर, राजस्थान
मो. 9828441477
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